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________________ श्रमणोपासक कथाएँ २३३ हो गई। वह राजा को विष प्रयोग से मारकर अपने पुत्र को राजगद्दी पर बैठाने का उपाय सोचने लगी। उसने एक दिन राजा के भोजन व वस्त्रों में विष मिला दिया । भोजन व वस्त्र धारण करते ही उसे अपार वेदना हई। रानी की काली करतूत को समझकर भी उसके अन्तमानस में रोष पैदा नहीं हुआ। पौषधशाला में जाकर उसने समस्त पापकृत्यों की आलोचना की। वहाँ से सौधर्म स्वर्ग में यह सूर्याभ देव बना। बौद्ध-ग्रन्थ दीघनिकाय में पायास्सिसुत्त एक प्रकरण है । उसमें राजा पायासि के प्रश्नोत्तर हैं। जो राजप्रश्नीय के प्रदेशो और केशी के प्रश्नोत्तर से मिलते-जुलते हैं। दोघनिकाय में पायासि को कौशल के राजा पसेनदि का वंशधर कहा है तथा चित्त सारथी के नाम के स्थान पर 'खत्ते' शब्द का प्रयोग हआ है । खत्ते का पर्यायवाची संस्कृत में 'क्षत' और 'क्षता' होता है जिसका अर्थ सारथी है । नगरी का नाम 'सेयविया' के स्थान पर 'सेत्तव्या' प्रयुक्त हआ है। आधुनिक अनुसधान-कर्ताओं ने श्रावस्ती (सहेटमहेट) कोबलरामपुर से ७ मील की दूरी पर अवस्थित माना है । प्रस्तुत कथानक में विमान, प्रेक्षागृह, प्रेक्षकों के बैठने का स्थान, पीठिका, प्रेक्षा-मण्डप, वाद्य, नाट्य विधि, जिसमें बत्तीस प्रकार के नाट्य आदि का वर्णन सांस्कृतिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। उसकी तुलना भरत मुनि के नाट्य शास्त्र तथा महाभारत और रामायण आदि से कर सकते हैं। तुगिया नगरी के श्रमणोपासक भगवती सूत्र शतक दूसरा उद्देशक ५वें में तुंगिया नगरी के श्रमणोपासकों का वर्णन आया है--- एक बार भगवान् महावीर तुंगिया नगरी के पुष्पवती चैत्य में विराजे । तुंगिया नगरी के श्रावक विराट् सम्पत्ति के अधिपति थे। उनके भव्य भवन थे। उनके यहां विपूल दास-दासियाँ थीं। साथ ही नव तत्त्वों के वे ज्ञाता थे। उन तत्त्वों में कौन हेय हैं; कौन ज्ञेय हैं और कौन उपादेय हैं इनका उन्हें सम्यक परिज्ञान था। निर्ग्रन्थ प्रवचन पर उनकी दृढ़ आस्था थी। देव, दानव, मानव कोई भी उन्हें विचलित नहीं कर सकता था। उनके जीवन के कण-कण में, मन के अणु-अणु में निर्ग्रन्थ प्रवचन व्याप्त . १ रायपसेणियसुत्त का सार, पृष्ठ ६६ पं. बेचरदास दोशी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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