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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
प्रदेशी
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- क्या हाथी और चींटी में एक समान जीव होता है ? केशी - एक समान जीव होता है । जैसे - कोई व्यक्ति कमरे में दीपक जलाए, सम्पूर्ण कमरा उससे प्रकाशित होता है । यदि उसे किसी बर्तन विशेष से ढँक दिया जाय तो वह बर्तन के भाग को ही प्रकाशित करेगा । दीपक दोनों स्थलों पर वही है । स्थान विशेष की दृष्टि से उसके प्रकाश में संकोच और विस्तार होता हैं, यही बात हाथी और चींटी के जीव के सम्बन्ध में है । संकोच और विस्तार दोनों ही अवस्थाओं में जीव की प्रदेश संख्या समान रहती है, उसमें न्यूनाधिकता नहीं होती ।
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केशीकुमार श्रमण के अकाट्य तर्कों को श्रवणकर प्रदेशी राजा की सभी शंकाओं का समाधान हो गया। उसने पुनः कहा- यह मेरा ही मन्तव्य नहीं है, किन्तु मेरे पिता भी जीव और शरीर को एक मानते थे । उनकी मान्यताओं को मैं कैसे ठुकरा सकता हूँ ?
केशी - तू भी लोहे के वजन को उठाने वाले व्यक्ति के समान मूढ़ है । जैसे कुछ व्यक्ति धन की अभिलाषा के लिए प्रस्थित हुए। कुछ दूर जाने पर उन्हें लोहे की खदान मिली। वे लोहे को लेकर आगे बढ़े। आगे ताम्बे की खान मिली । लोहा छोड़कर उन्होंने ताम्बा लिया । फिर चांदी की खदान मिली । ताम्बा छोड़कर चाँदी ली। आगे स्वर्ण की खदान मिली । चाँदी छोड़कर सोना लिया । फिर रत्नों की खान मिली। सोना छोड़कर रत्न लिए । आगे वज्र रत्नों की खदान मिली । रत्न छोड़कर वज्र रत्न लिये । उनके साथ एक साथी लोहे को ढोकर चल रहा था । वह उनके अस्थिर मस्तिष्क का उपहास करने लगा । साथियों ने उसे समझाया - लोहा छोड़कर बहुमूल्य रत्न ले लो। तुम्हारी दरिद्रता सदा के लिए मिट जायेगी । पर वह न माना । उसने कहा- जिस लोहे को इतनी दूर से ढोकर लाया हूँ, उसे कैसे छोडूं ? वह लोहे को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हुआ । जो रत्न लेकर गये, वे श्रीमन्त बन गये । वह उसी तरह भिखारी और दरिद्री बना रहा, वह अपने साथियों को श्रीसम्पन्न देखकर मन ही मन पश्चात्ताप करता, वैसे ही यदि तू केवलि - प्ररूपित धर्म को स्वीकार न करेगा तो तुझे भी पश्चात्ताप होगा ।
प्रदेशी ने केशोश्रमण से श्रावक के व्रत ग्रहण किए। जिसके हाथ खून से रंगे थे, उसका जीवन परिवर्तित हो गया । वह आत्म-साधना में तल्लीन रहने लगा | महारानी सूर्यकान्ता राजा की उदासीन वृत्ति से खिन्न
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