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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
प्रदेशी-नहीं, वह मेरा अपराधी है ।
केशी--तुम्हारे दादा का स्नेह होने पर भी वे नरक से नहीं आ सकते। अतः जीव और शरीर भिन्न है ।
प्रदेशी-मेरी दादी धर्मात्मा थी। आपकी दृष्टि से वह स्वर्ग में गई । उसे तो आकर मुझे कहना चाहिए ।
केशी-स्नान व सुगन्धित द्रव्यों का लेपन कर तुम जा रहे हो, उस समय कोई व्यक्ति शौच गृह में बैठा हुआ तुम्हें वहाँ आकर बैठने के लिए. कहे तो क्या तुम वहाँ बैठोगे और उसकी बात को सुनोगे ?
प्रदेशी-मैं शौच गृह में नहीं जाऊँगा।
केशी--स्वर्ग में उत्पन्न हुआ देव मानव लोक में आना पसन्द नहीं करता । उसे यहाँ की गन्ध अप्रिय है ।
प्रदेशी-एक तस्कर को मैंने कुम्भी में डालकर ढक्कन लगा दिया। कहीं पर भी छिद्र न रहे, अतः उसे लोहे और सीसे से बन्द कर दिया। विश्वस्त पहरेदार भी रखा। कुछ समय के बाद कुम्भी को खोलकर देखा, वह मरा हुआ था। इससे स्पष्ट है कि जीव और शरीर एक है।
केशी-- एक व्यक्ति कूटागारशाला में द्वार बन्द कर भेरी बजाए तो बाहर बैठा हुआ व्यक्ति सुनता है न? वैसे ही जीव पृथ्बो, शिला, पर्वत आदि को भेदकर बाहर आता है, अतः जीव और शरीर एक नहीं है।
__ प्रदेणी-मैंने एक तस्कर को कुम्भी में बन्द किया। उसके मृत कलेवर में कीड़े कुलबुला रहे थे जबकि कुम्भी में कही भी छिद्र नहीं था। इससे भी स्पष्ट है कि जीव और शरीर भिन्न नहीं, एक है।
केशी- तुमने लोहे को फूकते हुए देखा है न ? वह लोहा अग्निमय हो जाता है । लोहे में अग्नि कैसे प्रविष्ट हई, उसमें कहीं भी छिद्र नहीं, वैसे ही जीव अनिरुद्ध गति वाला है । इससे जीव और शरीर की पृथक्ता सिद्ध होती है।
प्रदेशी-एक व्यक्ति धनुर्विद्या में निपुण है, पर वह व्यक्ति बाल्यावस्था में एक भी बाण नहीं छोड़ सकता था । बाल्यावस्था और युवावस्था में जीव एक होता तो मैं समझता जीव और शरीर भिन्न है।
केशी-धनुर्विद्या निष्णात व्यक्ति शक्तिशाली है, पर उपकरणों के अभाव में अपनी शक्ति का प्रदर्शन नहीं कर सकता। वैसे ही बाल्यावस्था
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