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________________ श्रमणी कथाएँ २२३ 1 दर्शन के लिए आई । बत्तीस प्रकार के नाट्य विधि दिखाकर लौट गई। गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की - यह दिव्य ऋद्धि इसे कैसे प्राप्त हुई | भगवान् ने उसका पूर्वभव बताते हुए कहा - आमलकप्पा नगरी में काल नामक गाथापति की पुत्री काली थी । इसके स्तन अत्यधिक लम्बे थे, जो नितम्ब भाग को स्पर्श करते थे, अतः उसका विवाह नहीं हुआ । भगवान् पार्श्व के उपदेश को श्रवणकर उसने आर्या पुष्पचूला के पास दीक्षा ग्रहण की, अंग साहित्य का अध्ययन किया, संयम की आराधना भी करने लगी, कुछ समय के बाद शरीर पर आसक्ति पैदा हुई । पुनः पुनः अंगों का प्रक्षालन करती तथा जहाँ स्वाध्याय करती जल छिटकती । उसकी साध्वाचार से विपरीत प्रवृत्ति देखकर आर्या पुष्पचूला ने उसका गच्छ से सम्बन्ध तोड़ दिया । वह स्वच्छन्द हो गई, संयम की विराधिका बन गई । अन्तिम समय में पन्द्रह दिन का संथारा किया पर शिथिलाचार की आलोचना नहीं की । वही काली आर्या का जीव कालीदेवी बना । गौतम गणधर की जिज्ञासा पर भ० महावीर ने कहा- यह महाविदेह क्षेत्र में जन्म लेगी और वहाँ से मुक्त होगी । इसी तरह रजनी, विद्य ुत, मेघा, शुम्भा, निषुम्भा, रम्भा, निरम्भा, मदना आदि ने भी भगवान् पार्श्वनाथ के पधारने पर प्रव्रज्या ग्रहण की किन्तु वे सभी विराधक बनकर देवियाँ बनती हैं। उनके जीवन के सम्बन्ध में विशेष सूचना नहीं है, केवल वे जहाँ की थीं, उस जन्मस्थली का संकेत किया गया है। महावीर शासन में नन्दा आदि श्रमणियाँ नन्दा, नन्दवती, नन्दोत्तरा, नन्दश्रेणिका, मरुता, सुमरुता, महामरुता, मरुद्द वा, भद्रा, सुभद्रा, सुजाता, सुमनायिका और भूतदत्ता ये सभी श्रेणिका राजा की रानियाँ थीं। इन सभी ने भगवान् महावीर के उपदेश को सुनकर दीक्षा ग्रहण की। उत्कृष्ट तप जप की आराधना कर मुक्ति को वरण किया । ( अन्तकृतुदशा वर्ग ७, अ. १-१३) काली आदि श्रमणियाँ काली, सुकाली, महाकाली, कृष्णा, सुकृष्णा, महाकृष्णा, वीरकृष्णा, रामकृष्णा, पित्रसेनकृष्णा और महासेनकृष्णा ये दसों महाराज श्रेणिक की रानियाँ थीं । तीर्थंकर महावीर के उपदेश को श्रवणकर ये सभी दीक्षा लेती हैं और रत्नावली, कनकावली, लघुसिंह निष्क्रीडित, महासिंह निष्क्रीडित, सप्त सप्तमिका भिक्षु प्रतिमा, अष्ट अष्टमिका भिक्षुप्रतिमा, नव नव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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