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२२२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
प्रतिबोध दिया । उसे जातिस्मरणज्ञान हुआ कि मैं पूर्वजन्म से महाविदेह क्षेत्र में महापद्म नामक राजा था, वहाँ से महाशुक्र नामक देव बना । वहाँ यहाँ जन्मा हूँ । लिपुत्र को संसार निस्सार लगा । उसने स्वयं दीक्षित होकर उत्कृष्ट तप की आराधना की और अव्याबाध सुख को प्राप्त किया ।
जब मानव सुख के प्रति उसमें रुचि नहीं होती, धर्म के अभिमुख होता है । वह धर्म से विमुख था और
सागर पर तैरता है, उस समय धर्मक्रिया के जब दुःख की दावाग्नि में वह झुलसता है, तब जब तेतलिपुत्र का जीवन सुखी था, उस समय दुख आने पर वह धर्म के सम्मुख हुआ ।
इस कहानी में राजा कनकरथ की निष्ठुरता का निरूपण है । वह राज्यलोभी था । कहीं पुत्र उससे राज्य छीन न लें, इसीलिए वह उन्हें विकलांग बना देता था । राज्य के लोभ में मानव दानव बन जाता है, वह उचित और अनुचित का विवेक खो बैठता है ।
पार्श्वनाथ के तीर्थ की आर्या काली
ज्ञाताधर्म कथा के द्वितीय श्रुतस्कंध में पार्श्वतीर्थ में होने वाली अनेक श्रमणियाँ का उल्लेख है ।
महाव्रतों का विधिवत् सम्यक् पालन करने वाला साधक समस्त कर्मों को नष्ट कर निर्वाण प्राप्त करता है । यदि कर्म अवशेष रह जायें, तो वह वैमानिक देवों में उत्पन्न होता है । पर महाव्रतों का जो विधिवत् पालन नहीं करता, वह कुशील, काय-क्लेश आदि बाह्य तपों की आराधना कर देवगति को तो प्राप्त करता है, पर वैमानिक जैसे उच्च देवत्व को नहीं । भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क की पर्याय प्राप्त कर लेता है । यहाँ पर चमरेन्द्र की अग्रमहिषियों का वर्णन है । वह वर्णन मनुष्य पर्याय में जब वे साध्वियां बनीं और कुछ समय तक चारित्र की आराधना की और उसके बाद शरीर वकुशा बनकर चारित्र की विराधिका बनीं - उस समय का है । उन साध्वियों को उनकी गुरुणी ने बहुत कुछ समझाया, पर वे समझी नहीं, अतः उन्हें गच्छ से पृथक् कर दिया। बिना दोषों की आलोचना किये उन्होंने शरीर का परित्याग किया और चमरेन्द्र असुरराज की अग्रमहिषियाँ बनीं ।
भगवान् महावीर एक बार राजगृह में विराज रहे थे । उस समय कालीदेवी एक हजार योजन विस्तृत दिव्ययान में बैठकर भगवान्
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