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श्रमणी कथाएँ
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प्रस्तुत कथानक में द्वारिका नगरी के विनाश की तथा श्रीकृष्ण के आगामी काल में तीर्थंकर होने की महत्वपूर्ण सूचना है जिसका ऐतिहासिक दृष्टि से विशेष मूल्य है।
पोटिला कथानक ज्ञाताधर्मकथा के प्रथम श्रु तस्कन्ध के चौदहवें अध्ययन में पोटिला का कथानक आया है।
तेतलिपुर नगर के राजा कनकरथ का अमात्य 'तेतलिपुत्र' था।' वहीं पर 'मूषिकादारक' की पुत्री 'पोटिला' थी। पोटिला के अद्भुत रूप को देखकर तेतलिपुत्र मुग्ध हो गया। दोनों का विवाह हआ। उनमें परस्पर अत्यन्त अनुराग था। पर दोनों में ऐसी स्थिति पैदा हो गई कि तेतलि पुत्र उसके नाम से घृणा करने लगा। एक दिन जिसे पोट्टिला के विना रहा नहीं जाता था, वही आज उसके नाम को पसन्द नहीं करता । उसने पोटिटला को भोजन निर्माण तथा अतिथियों की सेवा का भार सम्हला दिया। एक दिन 'सुव्रता' नामक आर्या शिष्याओं के साथ तेतलिपूर में पधारी। वे भिक्षा के लिए पोट्टिला के वहाँ पहुँची। उसने साध्वियों को आहारदान देने के बाद निवेदन किया कि मुझे ऐसा वशीकरण मंत्र दो, जिससे मेरा पति मेरे वश में हो जाये। साध्वियों ने कहा-हम ब्रह्मचारिणी साध्वियां इस प्रकार की बातें सुनना भी पसन्द नहीं करतीं। पोट्टिला ने श्राविका के व्रत ग्रहण किये । उसकी अन्तरात्मा प्रबुद्ध हो उठी। संयम ग्रहण करने के लिए उसने तेतलिपुत्र से आज्ञा माँगो । तेतलि. पूत्र ने कहा-तुम संयम स्वीकार करोगी तो आगामी भव में देव वनोगी। वहां से आकर मुझे प्रतिबोध देना स्वीकार करो तो मैं दीक्षा लेने को अनुमति देता हूँ। वह दीक्षित हुई और देव बनी।
वचनबद्ध होने से पोट्टिल देव ने तेतलिपुत्र को प्रतिबुद्ध करने के अनेक उपाय किये, पर तेतलिपुत्र राजा द्वारा अत्यधिक सम्मानित होने से प्रतिबुद्ध नहीं हुआ। अन्त में देव ने राजा को उससे विरुद्ध किया । जब वह राजसभा में गया तो राजा ने मुह फेर लिया और बात भी नहीं की। राजा के अभिनव व्यवहार से वह भयभीत हो उठा। वह वहाँ से घर पर आया, किन्तु परिजनों ने भी उसे आदर नहीं दिया । आत्मघात करने के लिए वह प्रस्तुत हुआ, उसने अनेक उपाय किये किन्तु कोई भी उपाय कारगर नहीं हुआ। अन्त में पोटिल देव ने प्रगट होकर सारपूर्ण शब्दों में
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