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श्रमणी कथाएँ
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शाला खुलवाई। वहां जैन आयिकाओं का आगमन हआ। उसने यंत्र-तंत्र की याचना की। आयिकाओं ने अपना धर्म समझाया और सुकुमालिका ने साध्वी-धर्म स्वीकार किया। पर उसके अन्तर्मानस की मलिनता साफ नहीं हुई थी। अतः वह पुनः शिथिलाचारिणो हो गई और एकाकिनी रहने लगी । एक बार एकान्त में वह आतापना ले रही थी। उसने एक वेश्या को पांच पुरुषों से घिरी हई देखा। कोई उसका पैर दबा रहा था तो कोई चवर ढुला रहा था। सुकुमालिका के मन में भोगों की लालसा पैदा हुई। उसने ऐसा संकल्प किया कि यदि मेरे तप का फल हो तो मैं भी इस प्रकार सुख भोगू। वह मर कर देवगणिका के रूप में उत्पन्न हुई और वहाँ से राज द्रुपद की कन्या द्रौपदी बनी। 'द्रौपदी के स्वयंवर का आयोजन हुआ। श्रीकृष्ण पांडव आदि सभी उस स्वयंवर में उपस्थित हुए। निदानकृत होने से उसने पाँचों पांडवों का वरण किया।
एक बार नारद हस्तिनापुर आये । द्रौपदी ने उनका सम्मान नहीं किया जिससे नारद रुष्ट हो गये। वे धातकीखण्ड के अमरकंका के अधिपति परदारलम्पट पद्मनाभ के पास पहुँचे । द्रौपदी के रूप-लावण्य की अतिशय प्रशंसा की। उसने दैव की सहायता से द्रौपदी का हरण करवाया। द्रौपदी से उसने भोगों की याचना की। वह पूर्ण पतिव्रता नारी थी । पाण्डवों को लेकर कृष्ण अमरकंका पहँचे । पद्मनाभ को युद्ध में पराजित किया और राजधानी को तहस-नहस कर द्रौपदो का उद्धार किया। जीवन की सांध्य बेला में द्रौपदी के पुत्र पाण्डसेन को राज्य देकर पाण्डवों ने तथा द्रौपदी ने श्रमण-धर्म स्वीकार किया।
प्रस्तुत कथानक में जो द्रौपदी का निरूपण हुआ है, वह जैनदृष्टि से है । वैदिक महाभारत में भी द्रौपदी का निरूपण हुआ है । वैदिक परंपरा में पंच भरतारी होने का एक ही कारण दिया है कि उसने पूर्वभव में पति की कामना से तपस्या की थी। शंकर ने सर्वगुण सम्पन्न पति की प्राप्ति हो, ऐसा पाँच बार वरदान दिया था, जिससे उसे पंच भरतारी बनना पड़ा। वैदिक महाभारत की दृष्टि से द्रुपद राजा द्रौपदी की उत्पत्ति यज्ञाग्नि से करते हैं और उसकी उत्पत्ति का कारण कुरुवंश का विनाश बताया है । जैनदृष्टि से कुरुवंश के विनाश का कारण पाण्डवों के प्रति दुर्योधन की ईर्ष्या, हठ और अभिमान है । दुर्योधन कपट द्यूत में जीतने के पश्चात् द्रौपदी को निर्वस्त्र करना चाहता है, श्रीकृष्ण अपनी अलौकिक शक्ति से चीर बढ़ाते हैं, जबकि जैन परम्परा में चीर बढ़ाने का कारण सती द्रोपदी के स्वयं के
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