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श्रमणी - कथाएँ
आगम साहित्य में श्रमणों के समान श्रमणी कथानक भी मिलते हैं । हम कुछ प्रमुख श्रमणियों के कथानक दे रहे हैं ।
द्रौपदी
I
ज्ञाताधर्मकथा श्रुतस्कंध प्रथम और अध्ययन सोलहवें में भगवान् अरिष्टनेमि के शासन में द्रोपदी श्रमणी का उल्लेख है । द्रौपदी के पूर्व भवों का इसमें वर्णन है । द्रौपदी कई भव पूर्व नागश्री ब्राह्मणी थी । उसने तुम्बे का शाक बनाया, किन्तु जब उसने वह शाक चखा तो वह कटुक और विपाक्त था । उपालम्भ के भय से उसने उसे छिपाकर रख लिया । पारिवारिक जन भोजन से निवृत्त होकर चल दिये । धर्मरुचि अनगार भिक्षा के लिए आये | नागश्री मानवी के रूप में नागिन थी । उसने मुनि के पात्र में विषाक्त तूम्बे का शाक डाल दिया । मानव साधारण लाभ की इच्छा से भयंकर कुत्सित क्रूर कर्म कर बैठता है, उसका फल अत्यन्त दारुण होता है । धर्मरुचि मुनि आहार लेकर गुरु के चरणों में पहुँचे । गुरुजी ने उसे चखा और वे उसे परठने का आदेश देते हैं । धर्मरुचि परठने जाते हैं । एक बूँद शाक डालकर प्रतिक्रिया की वे प्रतीक्षा करते हैं । चीटियाँ आती हैं और प्राण गँवा बैठती हैं । मुनि का हृदय दहल उठा । उन्होंने जीवों की रक्षा के लिए वह विषाक्त शाक खाकर समाधिपूर्वक जीवन का अन्त किया । नागश्री का पाप छिपा न रह सका । उसे सर्वत्र ताड़ना तर्जना मिली। उसके शरीर में सोलह महारोग पैदा हो गये और हाय-हाय करती हुई मरी । वह छठी नरक में पैदा हुई और अतिदीर्घकाल तक वह पुनः पुन: नरक एवं तिर्यंच योनि में जन्म लेती है । सुदीर्घकाल के बाद वह सुकुमालिका नाम से श्र ेष्ठी की पुत्री बनती है, पर उस समय भी पाप के फल का अन्त नहीं हुआ । उसके शरीर का स्पर्श तलवार की धार की तरह तीक्ष्ण एवं अग्नि की तरह उष्ण था । इसलिए कोई भी उससे विवाह करने को प्रस्तुत नहीं था । यहाँ तक कि भिखारी भी रात्रि में उसे छोड़कर भाग जाता है । वह उसका अंग-स्पर्श सहन नहीं कर सका । पिता ने दान
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