SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 227
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कालोदायी अगगार भगवती शतक ७ उद्देशक १० में कालोदायी का कथानक है जो महाचीर के तीर्थ में हुए थे । राजगृही के गुणशोलक उद्यान के सन्निकट अन्यतीर्थी रहते थे। कालोदायी, शैलोदायी, शैवालोदायी उदय, नामोदय, नरमोदय, अन्यपालक, शैलपालक, शंखपालक और सुहस्ति गृहपति आदि । वे परस्पर वार्तालाप करने लगे। भ० महावीर धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय और जीवास्तिकाय इन पाँचों द्रव्यों को अस्ति काय कहते हैं और इन अस्तिकायों में से पुद्गलास्ति काय को छोड़कर शेष चार को अरूपी कहते हैं। उनका यह कथन किस प्रकार माना जा सकता है ? उन्होंने गणधर गौतम को सन्निकट से जाते हुए देखा और गौतम से जिज्ञासा प्रस्तुत की । गौतम ने कहा-हम अस्तिभाव को अस्तिभाव कहते हैं और नास्तिभाव को नास्तिभाव । गौतम ने भगवान महावीर से कहा। उधर कालोदायी प्रभु के समवसरण में पहुँचा। भगवान ने कहा-तुझे अस्तिकाय सम्बन्धी शंका है । मैं धर्मास्तिकाय आदि को प्ररूपणा करता हूँ। ___ कालोदायी ने जिज्ञासा प्रस्तुत को-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय इन अरूपी अजीव कायों पर क्या कोई बैठना, सोना, खड़े रहना आदि क्रियायें कर सकता है ? भगवान ने स्पष्टीकरण किया-केवल पद्गलास्तिकाय ही रूपी अजीव है। उस पर बैठने, सोने आदि को क्रियायें की जा सकती हैं, शेष पर नहीं। पुनः कालोदायी ने जिज्ञासा की-रूपी अजीव पुद्गलास्तिकाय में क्या जीवों को अशुभ फल देने वाले पापकर्म लगते हैं ? भगवान ने कहा जीव ही पापकर्म से युक्त होते हैं। समाधान पाकर कालोदायी ने स्कन्दक की तरह प्रभु के पास प्रव्रज्या ग्रहण की। प्रस्तुत कथा में जैनदर्शन की महत्वपूर्ण चर्चा है । जीवद्रव्य अरूपी है। वह चेतनामय है और जिसमें चेतना गुण का अभाव है, वह अजीव है। अजीव द्रव्य रूपी और अरूपी दोनों प्रकार का है। पुद्गल रूपी है, शेष चार द्रव्य अरूपी। रूपी के लिए मूर्त और अरूपी के लिए अमूर्त शब्द का भी प्रयोग हुआ है। __ जैनदर्शन ने छह द्रव्यों में जीव और पुद्गल को गतिशील एवं स्थितिशील दोनों माना है। धर्मास्तिकाय गति में सहायक है तो अधर्मा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy