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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
धन्य सार्थवाह
ज्ञाताधर्मकथा के प्रथम श्रुतस्कन्ध के अठाहरवें अध्ययन में धन्य सार्थवाह का कथानक आया है। धन्य सार्थवाह की पुत्री सुषमा थी। उसकी देखभाल के लिए 'चिलात' दासी-पुत्र को नियुक्त किया गया। वह अत्यन्त उच्छृखल था। श्रेष्ठो ने उसे निकाल दिया। वह व्यसनों का दास बन गया और तस्कराधिपति भी। बाल्यकाल से ही वह सुषमा को प्यार करता था, अतः उसने सुषमा का अपहरण किया। श्रेष्ठी और उसके पूत्रों ने उसका पीछा किया। अटवी में चिलात के द्वारा मारी गई सूषमा की मृत देह उन्हें प्राप्त हुई। वे कई दिनों से भूखे और प्यासे थे । अन्य कोई भी खाद्य पदार्थ उपलब्ध नहीं था, अतः उन्होंने उस मृत देह का भक्षण कर अपने प्राणों की रक्षा की। उन्हें उस आहार के प्रति किचित् मात्र भी आसक्ति नहीं थी। वैसे ही श्रमण और श्रमणियाँ संयम निर्वाह के लिए आहार ग्रहण करते हैं । आहार का लक्ष्य संयम-साधना है ।
___ बौद्ध त्रिपिटक साहित्य में भी इसी तरह मृत-कन्या का मांस-भक्षण कर जीवित रहने का उल्लेख है ।।
विसुद्धिमग्ग और शिक्षा समुच्चय में भी बौद्ध श्रमणों को इस तरह आहार लेना चाहिए. यह बताया गया है । मनुस्मृति, आपस्तम्बधर्मसूत्र वासिष्ठ बोधायन धर्मसूत्र आदि में संन्यासियों की आहार सम्बन्धी चर्चा भी इसी प्रकार मिलती-जुलती है।
प्रस्तुत कथानक से यह भी परिज्ञात होता है कि महावीर युग में तस्करों के द्वारा ऐसी मंत्रशक्ति का प्रयोग किया जाता था, जिससे संगीन से संगीन ताले भी मंत्र शक्ति से खुल जाते थे। इससे यह स्पष्ट है कि उस युग में ताले आदि का उपयोग धन आदि की रक्षा के लिए होता था। विदेशी यात्री मेगास्थनीज', ह्यएनत्सांग अथवा यूवान च्वाङ ( ६००-६४ ई०), फाह्यान प्रभृति यात्रियों ने अपने यात्रा-विवरणों में लिखा है-भारत में कोई भी व्यक्ति ताले आदि का उपयोग नहीं करता था, पर आगम साहित्य में ताले आदि का जो वर्णन मिलता है, वह अनुसन्धित्सुओं के लिए अन्वेषणीय है।
१ संयुक्तनिकाय २, पृष्ठ ६७ । २ आपस्तम्बधर्म सूत्र २४६१३ । ३ वासिष्ठ०६ : २०,२१.
४ बोधायन धर्मसूत्र २७.३१.३२ । ५ 'तालुग्घोडणिविज्ज'-ज्ञातासूत्र, प्रथम श्रुत०, अध्ययन १८ ।
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