________________
२०८ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
का अर्थ है - वर्तमान में जो जीव त्रस पर्याय में है, उसकी हिंसा का प्रत्याख्यान करना । उनका दूसरा उद्देश्य था -- सभी त्रस यदि कदाचित् स्थावर हो जायेंगे तो श्रमणोपासक का सवध प्रत्याख्यान निरर्थक एवं निर्विषय हो जायेगा । गणधर गौतम ने अनेक युक्तियों और दृष्टान्तों के द्वारा उनके प्रश्नों का समाधान किया । अन्त में उदक निर्ग्रन्थ भगवान महावीर के चरणों में स्व-समर्पण करके पंच महाव्रत रूप धर्म स्वीकार करते हैं । इसका बड़ा ही रोचक वर्णन इस कथानक में है । प्रस्तुत कथानक से यह भी पता लगता है कि गणधर गौतम अपनी प्रकृष्ट प्रतिभा से गहनतम समस्याओं का भी सरलतम समाधान करने में पूर्ण दक्ष थे ।
नन्दीफल
ज्ञातासूत्र श्रुतस्कंध प्रथम अध्ययन पन्द्रहवें में प्रस्तुत प्रसंग आया है | धन्य सार्थवाह चम्पा का बहुत बड़ा व्यापारी था । वह माल लेकर अहिछत्रा नगरी जाने का विचार करने लगा । व्यापार समाजसेवा का एक माध्यम है । प्रत्येक देश में प्रत्येक वस्तु नहीं होती और न प्रत्येक देश में कलाओं का विकास ही होता है । इसलिए व्यापार के द्वारा आयात और निर्यात किया जाता है । कितनी ही वस्तुएं कितने ही प्रदेशों में इतनी अधिक मात्रा में होती हैं कि जन-समूह उनका उपभोग नहीं कर पाता तथा उस उत्पादन का उन्हें उचित मूल्य नहीं मिल पाता है । उस क्षेत्र में वह वस्तु निरर्थक बन जाती है। उन वस्तुओं का अभाव दूसरे देश -निवासियों को खटकता रहता है । आयात और निर्यात होने से समस्या का सही समाधान हो जाता है । उत्पादकों को योग्य पारिश्रमिक मिलता है और आवश्यकता की पूर्ति हो जाने से सभी का जीवन शान्ति के सागर पर तैरने लगता है । आयात-निर्यात का उत्तरदायित्व वणिक् वर्ग पर था । वणिक् वर्ग में ही एक वर्ग 'सार्थवाह' कहलाता था । वह कुशल व्यापारी होता था, अनेक लोगों को लेकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाता था । अस हाय व्यक्तियों के लिए वह मेढ़ीभूत होता था । धन्य श्र ेष्ठी ऐसा ही सार्थवाह था । वह अपने साथ बहुत सारे व्यापारियों को लेकर जा रहा था, विकट अटवी में जब सार्थवाह पहुँचा तो वहाँ पर ऐसे विष वृक्ष थे, जिसके फल, पत्ते, छाल छूने पर, चखने पर और सूँघने पर अत्यन्त मधुर लगते थे, पर उनकी छाया ही प्राणों का अपहरण करने वाली थी । अतः धन्य सार्थवाह ने, जो उन वृक्षों से परिचित था, उसने सार्थ को चेतावनी दी कि
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org