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श्रमण कथाएँ २०७
बुद्ध
करते हुए सौधर्म देवलोक में देव बनकर महा विदेह क्षेत्र में सिद्ध, और मुक्त बनता है ।
कालात्यवेषि अणगार
कालास्य वेषि अणगार भगवान पार्श्वनाथ की परम्परा के थे । भगवान महावीर के समय हजारों पाश्र्वपित्य श्रमण विचरते थे । उसमें कालास्यवेषि पुत्र अणगार भी थे। उनके अन्तर्मानस में यह प्रश्न उद्बुद्ध हुआ कि हमारे में और भगवान महावीर के स्थविरों में क्या अन्तर है ? उन्होंने सामायिक आदि के सम्बन्ध में स्थविरों से पूछा । उत्तर पाकर वे अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और पाश्र्वापत्य के चातुर्याम धर्म को छोड़कर भगवान महावीर के शासन को स्वीकार किया । ( भगवती १ / उ० ६ )
उदक पेढाल
सूत्रकृतांग श्रुतस्कन्ध द्वितीय, अध्ययन सातवें में उदक पेढाल का वर्णन है । राजगृही का उपनगर नालन्दा था । वहाँ 'लेव' नामक श्रमणोपासक था। उसकी 'शेषद्रविका' उदकशाला थी । प्रोफेसर डॉ० हर्मन जैकोबी' ने तथा गोपालदास पटेल ने उदकशाला का अर्थ 'स्नान गृह' किया है | आचार्य हेमचन्द्र ने 'प्रपा' (प्याऊ ) अर्थ किया है । " शतावधानी रत्नचन्द्र जी महाराज ने भो यही अर्थ किया 14
| पार्श्वपत्तीय सन्निकट ठहरे उनके प्रश्नों के
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गौतम गणधर एक बार उदकशाला में ठहरे हुए थे तार्य गोत्रीय पेढालपुत्र उदक नामक निर्ग्रन्थ भी उसी के हुए थे । वे गणधर गौतम से विविध प्रश्नोत्तर करते हैं । मुख्य दो उद्देश्य थे - पहला श्रमणोपासक द्वारा ग्रहण किया जाने वाला त्रसवध प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान है क्योंकि उसका पालन सम्भव नहीं है । त्रस जीव मरकर स्थावर हो जाते हैं और स्थावर जीव मरकर त्रस हो जाते हैं । ऐसी स्थिति में त्रस स्थावर का निश्चय करना कठिन होता है, अतः त्रस के स्थान पर 'त्रसभूत' शब्द का प्रयोग होना चाहिए। त्रसभूत
१ सेक्रेड बुक्स ऑव दि ईस्ट, वाल्यूम ४५ । २ 'महावीरनो संयमधर्म' (गुजराती) पृष्ठ १२७ । ३ अभिधान चिन्तामणि कोष, भूमिकाण्ड, श्लोक ६७ । ४ अर्धमागधी कोष, भाग २, पृष्ठ २१८ |
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- प्रो० डा० हर्मन जेकोबी
-गोपालदास पटेल - आचार्य हेमचन्द्र
- शतावधानी रत्नचन्द्रजी महाराज
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