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________________ २०६ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा पड़ते । उनकी यात्रा का उद्देश्य व्यापार था। निरन्तर सफलता प्राप्त होने से उनका साहस बढ़ गया। जब वे बारहवीं बार समुद्र यात्रा के लिए सन्नद्ध हुए तो माता-पिता ने इन्कार करते हुए कहा-हमारे पास इतना वैभव है कि सात पीढ़ी तक भी वह समाप्त नहीं हो सकता । अतः बारहवीं यात्रा स्थगित कर दो। जबानी के जोश में पूत्र नहीं माने और यात्रा के लिए चल पड़े। नौकाएँ समुद्र में आगे बढ़ रही थीं। आकाश में मेघों की भयंकर गर्जना होने लगी, बिजलियाँ कौंधने लगी तथा भयंकर आँधी ने रौद्र रूप धारण किया। उन दोनों का यान उस आँधी में फँसकर छिन्न-भिन्न हो गया। माता-पिता की बात न मान कर अपने हठ पर कायम रहने का दुष्परिणाम वे भोग चुके थे। एक टूटे हुए पाटिया के सहारे वे समुद्र में तिर रहे थे । जिस प्रदेश में वे पहुँचे वह रत्न द्वीप था। रत्नदेवी उनके पास पहेंची और उनसे भोग की याचना की। कोई विकल्प नहीं होने से वे उसकी इच्छा तृप्त करने लगे । एक बार रत्नदेवी ने जाते हुए जिनपाल और जिनरक्षित को तीन दिशाओं के वनखण्डों में जाने की अनुमति दी किन्तु दक्षिण दिशा के वनखण्ड में जाने का निषेध किया। देवी के मना करने पर भी वे उधर ही चल पड़े। उन्होंने वहाँ एक व्यक्ति को शूली पर छटपटाते हुए देखा। पूछने पर उसने अपनी करुण कहानी कही-देवी के कारण ही मेरी यह स्थिति हुई है ! माकन्दीपुत्रों का हृदय काँप उठा। उस व्यक्ति ने शैलक यक्ष के पास जाने का संकेत किया। वे दोनों शेलक यक्ष के पास पहुँचे । पर उसने शर्त रखी-रत्नदेवी के प्रलोभन में तुम आ गये तो मैं तुम्हें समुद्र में गिरा दूंगा। जो प्रलोभन में नहीं आयेगा, उसे सकुशल पहुँचा दूंगा। रत्नदेवी अपने ज्ञान से जानकर वहाँ आई । जिन पालित अविचल रहा किन्तु जिनरक्षित उसके अनुराग में अनुरक्त हो गया। यक्ष ने उसे पीठ से गिरा दिया और रत्नदेवी ने उसके टुकड़े-टुकड़े कर दिये। जिनपालित अपने लक्ष्य-स्थल पर पहुँच गया। इसी प्रकार जो साधक अपनी साधना से विचलित नहीं होता, वह मोक्ष को प्राप्त करता है । प्रस्तुत कथानक से मिलता-जुलता कथानक बौद्ध साहित्य के 'वलाहस-जातक' तथा 'दिव्यावदान' में भी है । तुलनात्मक अध्ययन करने से यह स्पष्ट होता है कि दोनों कथानकों में परम्परा के भेद से अन्तर अवश्य है पर कथानकों के मूल तत्व प्रायः मिलते-जुलते हैं। श्रमण भगवान महावीर के पावन उपदेश को श्रवण कर जिनपालित श्रमण धर्म को स्वीकार करता है और उत्कृष्ट तप-जप की आराधना द्वारा अपनी आत्मा को भावित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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