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श्रमण कथाएँ
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निवेदन किया-भगवन् ! मेरी दीक्षा ग्रहण करने की भावना है। पुत्र को राज्य सौंपकर दीक्षित होने के लिए मैं आपश्री के चरणों में उपस्थित न होऊँ, वहाँ तक आप विहार न करें। महावीर ने कहा---धर्म-कार्य में प्रमाद मत करना । वह चिन्तन करने लगा-यदि पुत्र को राज्य दूंगा तो वह राज्य में आसक्त हो जाएगा और दीर्घकाल तक संसार में परिभ्रमण करेगा। मैं उसके संसार-परिभ्रमण का निमित्त बनूंगा । अतः पुत्र को राज्य न देकर अपने भानजे केशी को राज्य दूं जिससे पुत्र भी सुरक्षित रहेगा। राजा ने अपने विचार को आचार में परिणत कर दिया। उदायन बड़े समारोह के साथ अभिनिष्क्रमित हुआ। उसने प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की।
दीक्षा के पश्चात् दुष्कर तप की आराधना करते हुए वे अत्यन्त कृश हो गये । शारीरिक शक्ति क्षीण होने के वे रुग्ण रहने लगे। जब रोग ने उग्र रूप धारण किया तो ध्यान, स्वाध्याय आदि में विघ्न उपस्थित होने लगा। वैद्य के परामर्श से उदायन राजर्षि ने गोकल में रहकर दधि आदि का उपयोग किया, जिससे वे पूर्ण स्वस्थ हुए।
भगवती में इतना ही वर्णन है, किन्तु आवश्यकचूणि तथा अन्य व्याख्या साहित्य में उल्लेख है कि एक समय राजर्षि उदायन विहार करते हुए वीतभय नगर में पधारे । राजा केशो को मन्त्रियों ने कहा- आपका राज्य छीनने के लिए राजर्षि पूनः नगर में आये हैं अतः आपको सचेत हो जाना चाहिए । ऋद्ध होकर राजा केशी ने यह उद्घोषणा करवा दीमनि को रहने के लिए स्थान न दें। राजर्षि को नगर में कहीं भी स्थान नहीं मिला। अन्त में एक कुम्भकार के वहाँ पर उन्होंने विश्राम लिया। राजा के शी ने राजर्षि को मरवाने के लिए आहार में जहर मिला दिया पर महारानी प्रभावती, जो देवी बनी हुई थी, उसने उनको उबार लिया। देवी को अनुपस्थिति में विष-मिश्रित आहार राजर्षि के पात्र में आ गया। उन्होंने अनासक्त भाव से उस आहार को ग्रहण किया, जिससे शरीर में विष फैल गया। राजर्षि ने अनशन किया, केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष की प्राप्ति की।
राजर्षि के मोक्ष-गमन से देवी, नागरिकों और राजा पर अत्यन्त क्रुद्ध हुई। उसने धूलि की वर्षा की, सारे नगर को धूल से आच्छादित कर दिया । केवल कुम्भकार बचा क्योंकि वह राजर्षि का शय्यातर था। देवी
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