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________________ २०२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा दीप, शय्या के उपकरण, कमंडल, दण्ड और स्वयं का शरीर । मधु, घृत, चावल द्वारा अग्नि में होम कर वैश्वदेव की अर्चना की। अतिथि की पूजा करके आहार ग्रहण किया। दूसरी बार उसी तरह दक्षिण, पश्चिम और उत्तर सभी लोकपालों की आज्ञा लेकर वह पारणा करता । दिकचक्रवाल तप आतापना, प्रकृति की भद्रता आदि से शिव राजर्षि को विभंगज्ञान हुआ जिससे वह सात द्वीप और सात समुद्र को देखने लगे। उन्होंने यह उद्घोषणा की - लोक में सात द्वीप और सात समुद्र ही हैं । भगवान् महावीर हस्तिनापुर नगरी के उद्यान में पधारे । इन्द्रभूति गौतम ने शिव राजर्षि की अतिशय ज्ञान की चर्चा सुनी, उन्होंने भगवान् महावीर से निवेदन किया- भगवन् ! सत्य क्या है ? प्रभु ने स्पष्ट शब्दों में कहा - शिव राजर्षि का कथन मिथ्या है । जम्बूद्वीप आदि सभी वृत्ताकार है । विस्तार में एक दूसरे से दुगुने हैं तथा असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं। शिव राजर्षि ने भगवान् महावीर की वह बात सुनी, तो उसे अपने ज्ञान के प्रति संशय पैदा हुआ। वह भगवान के पास पहुँच कर, सही समाधान पाकर प्रबुद्ध हुआ, उसने प्रव्रज्या ग्रहण कर अंगों का अध्ययन किया । कर्मों को नष्ट कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुआ । स्कन्दक परिव्राजक, पुद्गल परिव्राजक तथा शिव राजर्षि ये तीनों वैदिक परम्परा के परिव्राजक श्रमण परम्परा को ग्रहण करते हैं और साथ ही उस युग के ज्वलन्त प्रश्न, जो जन-मानस में घूम रहे थे और सही समाधान नहीं होने से जन-मानस विक्षुब्ध बना हुआ था, उन प्रश्नों का सर्वज्ञ, सर्वदर्शी भगवान् महावीर स्पष्ट रूप से समाधान करते हैं । कथा के माध्यम से दार्शनिक चिन्तन को प्रस्तुत किया गया है । यही इन तीनों कथाओं की विशेषता है । उदायन राजा भगवतीसूत्र, शतक तेरह और उद्देशक छह में महावीर तीर्थ में हुए राजा उदायन का कथानक आया है । सिन्धु सौवीर देश में 'वीतभय' नामक नगर था । वहाँ का राजा 'उदायन' था । एक रात्रि को पौषध करते हुए उसके अन्तर्मानस में ये विचार उद्बुद्ध हुए कि यदि भगवान महावीर यहाँ पधारें तो मैं अपने पुत्र को राज्य देकर श्रमण बन जाऊँ । भगवान् महावीर उग्र विहार करते हुए वीतभय नगर में पधारे । उदायन बहुत ही प्रसन्न हुआ । उसने भगवान् से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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