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की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है एवं उत्कृष्टतम स्थिति तेतीस सागरोपम की है । पुद्गल परिव्राजक ने आलंभिका नगरी के निवासियों से यह बात सुनो। उसे अपने ज्ञान पर संशय हुआ जिससे उसका विभंगज्ञान नष्ट हो गया । वह अपने धर्मोपकरण लेकर भगवान महावीर के पास आया । महावीर से शंकाओं का निवारण किया और समाधान होने पर वह श्रमण भगवान् महावीर के शासन में प्रव्रजित हुआ तथा कर्मों का अन्त कर सिद्धि प्राप्त की ।
श्रमण क
धर्मकथानुयोग में 'मोग्गल परिव्वायगे' शब्द दिया है । पं० बेचरदास जी दोशी ने भी 'मोग्गल' शब्द का ही प्रयोग किया है और 'पोग्गल' को उन्होंने पाठान्तर में दिया है। जबकि सैलाना संस्करण, जैन विश्वभारतीलाडनूं संस्करण द्वय में 'पोग्गल परिव्वायग' शब्द को ही प्रमुखता दी है ।
शिव राजर्षि
भगवती सूत्र, शतक ग्यारह, उद्देशक नो में महावीर तोर्थ में हुए शिव राजर्षि का निरूपण हुआ है ।
हस्तिनापुर नगर में 'शिव' नामक राजा था और उसकी 'धारिणी' पटरानी थी। रात्रि के तृतीय प्रहर में उसे यह अध्यवसाय उत्पन्न हुआ कि मेरा पुत्र बड़ा हो गया है, मैं उसे राज्य का कार्यभार सौंपकर 'दिशाप्रोक्षक' प्रब्रज्या ग्रहण करू । तदनुसार उसने प्रव्रज्या ग्रहण की और यह अभिग्रह ग्रहण किया - यावज्जीवन निरन्तर बेले - बेले की तपस्या द्वारा 'दिक् चक्रवाल तप कर्म से दोनों हाथ ऊँचे रखकर मुझे रहना कल्पता है ।' इस प्रकार उग्र अभिग्रह धारण कर प्रथम बेले की तपस्या के पारणे के दिन 'शिव राजर्षि' आतापना भूमि से नीचे उतरता है तथा वल्कल के वस्त्र धारण कर बाँस की छबड़ी और कावड़ को लेकर पहले पूर्व दिशा के सोम महाराजा से आज्ञा लेता है और पूर्व दिशा में रहे हुए कन्द, मुल, फल, छाल, पत्र, पुष्प आदि वनस्पति ग्रहण करता है । पुनः कावड़ नीचे रखकर उसने वेदिका का परिमार्जन किया और लोप कर उसे शुद्ध किया । फिर str और कलश हाथ में लेकर गंगा नदी पर आया, उसमें डुबकी लगाई फिर झौंपड़ी में आकर डाभ, कुश और बालुका से वेदिका का निर्माण किया । अरणी की लकड़ी को घिसकर अग्नि प्रज्वलित की, अग्नि के दाहिनी ओर सात वस्तुओं को रखा । सकथा ( उपकरण विशेष ), वल्कल,
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