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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
वे उसका सटीक उत्तर देते जिससे साधक यथार्थ सत्यतथ्य को जानकर साधना के पथ पर बढ़ जाता ।
यहाँ एक प्रश्न चिन्तनीय है- स्कन्दक परिव्राजक वैदिक परम्परा का अनुयायी था फिर उसने धर्म परिवर्तन क्यों किया ? उत्तर में निवेदन है - यह जाति परिवर्तन नहीं किन्तु विचार- परिवर्तन है । भारतीय जाति में विचार- परिवर्तन की पूर्ण स्वतन्त्रता थी । स्कन्दक, अम्बड आदि अनेक परिव्राजक जो प्रभु महावीर के पास प्रव्रजित हुए थे, यह परिवर्तन स्वयं के विचार एवं रुचि के अनुसार हुआ था । सम्भव है इसी तरह जैन, बौद्ध और आजीवक भी वैदिक धर्म में दीक्षित हुए हों। यह न तो जाति-परिवर्तन था और न राष्ट्रीय चेतना में ही परिवर्तन था । यह कार्य विचारपरिवर्तन तक ही सीमित था । इसीलिए सभी धर्म वाले इस परिवर्तन को बिना रोक टोक के स्वीकार करते थे । आज जो धर्म परिवर्तन का दौर द्रुत गति से बढ़ रहा है, वह विचार परिवर्तन नहीं किन्तु जाति परिवर्तन है और अर्थतन्त्र पर आधृत है । जिससे पारस्परिक संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है ।
पुद्गल परिव्राजक
भगवती सूत्र, शतक ग्यारह और उद्देशक बारह में पुद्गल परिव्राजक का वर्णन आया है। एक बार भगवान् महावीर आलंभिका नगरी के शंखवन उद्यान में पधारे । शंखवन उद्यान के पास 'पुद्गल परिव्राजक' रहता था । उसे विभंगज्ञान हुआ जिससे वह पाँचवें ब्रह्म देवलोक में रहे हुए देवों को स्थिति जानने लगा 'मुझे अतिशय ज्ञान उत्पन्न हुआ है ।' देवों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष तथा उत्कृष्ट दस सागरोपम की है । उस के आगे देव और देवलोक नहीं है । सारे नगर में यह चर्चा फैल गई । भगवान ने कहा- पुद्गल परिव्राजक का कथन असत्य है । मैं कहता हूँ - देवों
(पृष्ठ १६६ का शेष )
५ क्या लोक अन्तमान हैं ? ६ क्या जीव और शरीर भिन्न हैं ?
७ क्या मरने के बाद तथागत नहीं होते ?
८ क्या मरने के बाद तथागत होते भी हैं और नहीं भी होते ?
क्या मरने के बाद तथागत न होते हैं और न नहीं होते हैं ।
- मज्झिमनिकाय चूलमालुक्य सुत्त ६३. दीघनिकाय पोट्ठपाद सुत्त १ / ६.
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