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________________ श्रमण कथाएँ १६६ एक और सान्त है। क्षेत्र की दृष्टि से पैंतालीस लाख योजन आयाम विष्कम्भ वाला है। काल की दृष्टि से यह नहीं कहा जा सकता कि किसी दिन मोक्ष नहीं था, नहीं है और नहीं रहेगा। भाव की दृष्टि से वह अन्तरहित है। इस तरह द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से मोक्ष अन्तयुक्त है तथा काल और भाव की दृष्टि से अन्तरहित है । स्कन्दक ! इसी तरह सिद्ध के सम्बन्ध में भी तुम्हें समझना चाहिए। द्रव्य की दृष्टि से सिद्ध एक है और अन्त-युक्त है। क्षेत्र की दृष्टि से सिद्ध असंख्य प्रदेश अवगाढ़ होने पर भी अन्त-युक्त है। काल की दृष्टि से सिद्ध की आदि तो है पर अन्त नहीं। भाव की दृष्टि से ज्ञान-दर्शन पर्यवरूप है और उसका अन्त नहीं। मरण के सम्बन्ध में भी तुम्हारे अन्तर्मानस में विकल्प है कि किस मरण से संसार बढ़ता है तथा किस मरण से संसार घटता है । मरण के दो प्रकार हैं-बाल-मरण और पण्डित-मरण ! बाल-मरण के बारह प्रकार हैं तथा पण्डित के पादपोपगमन और भक्त प्रत्याख्यान ये दो प्रकार हैं एवं अवान्तर भेद भी अनेक हैं। पण्डित-मरण से संसार घटता है और बालमरण से संसार बढ़ता है। इस प्रकार सभी प्रश्नों के उत्तर सुनकर स्कन्दक परिव्राजक आल्हादित हुआ, उसने दीक्षित होने को भावना व्यक्त की । प्रभु ने उसे जैनेश्वरी दीक्षा दी और ज्ञान-ध्यान की साधना से स्कन्दक परिव्राजक कर्मों को नष्ट कर मुक्त हुआ। प्रस्तुत कथानक से ज्ञात होता है कि भगवान महावीर के समय इस प्रकार के प्रश्न प्रत्येक व्यक्ति के मस्तिष्क में चक्कर काट रहे थे । अनेक परिव्राजक, संन्यासी और श्रमण इन प्रश्नों पर चिन्तन-मनन करते किन्तु सही समाधान के अभाव में इधर-उधर मूर्धन्य मनीषियों से व धर्म-प्रवर्तकों से समाधान पाने के लिए घूमते रहते थे। तथागत बुद्ध के पास इस प्रकार के प्रश्न लेकर कोई जाता तो बुद्ध अव्याकृत कहकर उन्हें टालने का प्रयास करते थे।1 किन्तु भगवान महावीर ऐसे प्रश्नों पर कभी भी मौन नहीं होते, १ तथागत बुद्ध ने जिन प्रश्नों को अव्याकृत कहा, वे ये हैं १ क्या लोक शाश्वत है ? २ क्या लोक अनन्त है ? ३ क्या लोक अशाश्वत है ? ४ क्या जीव और शरीर एक हैं ? (शेष पृष्ठ २०० पर) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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