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________________ १९८ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा अन्वागत है । हे मागध ! यह सत्य है कि पिंगल नामक निर्ग्रन्थ श्रावक ने आपसे कुछ प्रश्न पूछे जिनके उत्तर आप नहीं दे सके। उनके उत्तर पाने के लिए आपका यहाँ आगमन हुआ है । गणधर गौतम के द्वारा अपने मन की बात को सुनकर स्कन्दक परिव्राजक को बहुत ही आश्चर्य हुआ। गौतम ने कहा-मेरे धर्मगुरु, धर्मोंपदेशक भगवान महावीर सर्वज्ञ हैं। आपके मानसिक विचारों से पूर्ण परिचित हैं। उन्होंने ही मुझे बताया कि आप किस उद्देश्य से यहाँ आये हैं ? चलिए, उन्हें श्रद्धास्निग्ध हृदय से वन्दन-नमस्कार कीजिए। स्कन्दक ने भगवान् को वन्दन किया। प्रभु ने कहा-मागध ! श्रावस्ती में रहने वाले पिंगल निग्रंथ ने तुम्हारे से 'लोक, जीव, मोक्ष, सिद्ध आदि सान्त हैं या अनन्त' । इस प्रकार प्रश्न पूछे थे न ? स्कन्दक-हाँ, भगवन् ! पूछे थे। महावीर-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव से यह लोक चार प्रकार का है। द्रव्य दृष्टि से एक और सान्त है, क्षेत्र दृष्टि से असंख्य कोटाकोटि योजन आयाम विष्कम्भ वाला है। इसकी परिधि असंख्य कोटाकोटि योजन है। काल की दृष्टि से किसी दिन नहीं होता है, ऐसा नहीं। किसी दिन नहीं था-ऐसा नहीं । किसी दिन नहीं रहेगा-ऐसा भी नहीं। वह तीनों कालों में रहेगा, वह ध्र व, शाश्वत, नियत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । भावदृष्टि से वह अनन्त वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शपर्यव रूप है । ___स्कन्दक ! द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा से यह लोक सान्त है, काल और भाव की अपेक्षा से अनन्त है, इसलिए लोक सान्त भी है और अनन्त भी है। जीव के सम्बन्ध में भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से ही समझा जाय। द्रव्य की अपेक्षा से जीव एक और सान्त है। क्षेत्र की अपेक्षा से वह असंख्यात प्रदेशी है और सान्त है । काल की अपेक्षा से वह अतीत में था, वर्तमान में है और भविष्य में रहेगा । अतः नित्य है, उसका कभी भी अन्त नहीं है। भाव की अपेक्षा से वह अनन्त ज्ञानपर्यव रूप है, अनन्त दर्शनपर्यव रूप है और अनन्त गुरु-लघु पर्यवरूप है। इसका अन्त नहीं है। इस प्रकार स्कन्दक ! द्रव्य व क्षेत्र की अपेक्षा से जीव अन्त-युक्त है एवं काल और भाव की अपेक्षा से अन्त-रहित है । इसी प्रकार मोक्ष भी सान्त और अनन्त है । द्रव्य की दृष्टि से मोक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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