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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
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आर्य स्कन्दक परिव्राजक
भगवती सूत्र शतक दूसरे और उद्देदेशक प्रथम में स्कन्दक परिव्राजक का वर्णन आया है । वैदिक परम्परा का 'परिव्राजक' शब्द विशिष्ट अर्थ को लिये हुए है । निरुक्त में भिक्षा से आजीविका करने वाले साधु को 'परिव्राजक ' माना है । 1 डा० राजबली पाण्डेय ने लिखा है- परिव्राजक चारों ओर भ्रमण करने वाला संन्यासी था । वह संसार से विरक्त तथा सामाजिक नियमों से अलग-थलग रहकर अपना सम्पूर्ण समय ध्यान, शिक्षण, चिन्तन आदि में व्यतीत करता था ।
जैन आगम - साहित्य में तथा उत्तरवर्ती साहित्य में तापस, परिव्राजक, संन्यासी आदि विविध प्रकार के साधकों का सविस्तृत वर्णन है । औपपातिक, सूत्रकृतांग नियुक्ति', पिण्डनियुक्ति', वृहत्कल्पभाष्य' निशीथसूत्र सभाष्य चूर्णि ', भगवती, आवश्यकचूर्ण', धम्मपद अट्ठकथा ", ललित विस्तर 11, आदि ग्रन्थों को निहारा जा सकता है । परिव्राजक श्रमण ब्राह्मण धर्म के प्रतिष्ठित पण्डित होते थे । वशिष्ठ धर्मसूत्र के उल्लेखानुसार परिव्राजक को अपना सिर मुण्डित रखना, एक वस्त्र व चर्मखण्ड धारण करना, गायों के लिए लाई हुई घास से अपने शरीर को आच्छादित करना और उसे जमीन पर शयन करना चाहिए। 12 मलालसेकर ने डिक्सनरी ऑफ पाली प्रॉपर नेम्स आदि में परिव्राजक 13 की परिभाषा प्रस्तुत की है । एक बार श्रमण भगवान् महावीर कृतंगला नामक नगरी में पधारे
१ निरुक्त १/१४, वैदिक कोश ३ औपपातिक सूत्र ३८, पृष्ठ १७२ से १७६
२ हिन्दू धर्मकोश, पृष्ठ ३६० - ३६१
४ सूत्रकृतांग नियुक्ति ३/४/२, ३/४ पृष्ठ ६४-६५
५ पिण्डनियुक्ति गा. ३१४
७ निशीथ सूत्र सभाष्य चूर्णि भाग २
६ आवश्यकचूर्णि पृष्ठ २७८
११ दीघनिकाय अट्टकथा - १, पृष्ठ २७०
१३ (क) वशिष्ठ धर्मसूत्र - १०३-११
(ख) डिक्सनरी आफ पाली प्रोपर नेम्स, जिल्द २, पृष्ठ १५६ आदि- मलाल
सेकर ।
( ग ) महाभारत १२ / १६०/३
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६ बृहत्कल्पभाष्य, भाग ४, पृष्ठ ११७० भगवती सूत्र ११ / ६
८
१०
१२
धम्मपद अट्ठकथा-२, पृष्ठ २०६
ललित विस्तर पृष्ठ- २४८
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