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________________ श्रमण कथाएं' १६५ मुझे उचित ज्ञात नहीं होते हैं। मुझे उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त हो चुका है। मैं निरीह हैं, वेदों से मुझे क्या प्रयोजन। इसो उत्कृष्ट ज्ञान की आराधना और साधना से मुझे ब्रह्म की प्राप्ति हो जायेगी ।। पिता ने कहा-वत्स ! तू ऐसी बातें क्यों कर रहा है ? ऐसा प्रतीत होता है, किसी ऋषि या देव का शाप तुझे लगा है। सुमति ने कहातात ! पूर्वजन्म में मैं एक ब्राह्मण था। परमात्मा के ध्यान में मैं सदा तल्लीन रहता था । आत्मविद्या के विचार मेरे में पूर्ण रूप से विकसित हो चुके थे। मैं साधना में सदा लगा रहता, मुझे लाखों जन्मों की स्मृति हो आई है। जाति-स्मरण ज्ञान की प्राप्ति धर्मत्रयी में रहे हुए मानव को होती है, मुझे यह ज्ञान पहले से ही प्राप्त है, अब मैं आत्ममुक्ति के लिए प्रयास करूंगा। पिता-पुत्र का संवाद आगे बढ़ा। पुत्र पिता के समक्ष मृत्यु-दर्शन उपस्थित करता है । यह संवाद प्रस्तुत कथानक में आये हुए जैन कथानक से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। इस संवाद में आत्मज्ञान और वेदज्ञान के तारतम्य को अत्यन्त सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। . विन्टरनीट्ज का अभिमत है-मार्कण्डेय पुराण में आया हुआ यह संवाद बहुत कुछ सम्भव है बौद्ध या जैन परम्परा का रहा हो। उसके (पश्चात् महाकाव्य या पौराणिक साहित्य में सम्मिलित कर लिया गया हो। प मुझे ऐसा प्रतीत होता है-यह बहुत प्राचीनकाल से प्रचलित श्रमण-साहित्य -का अंश रहा होगा और उसी से जैन, बौद्ध, महाकाव्यकारों तथा पुराणरिकारों ने ग्रहण कर लिया होगा ।। १ एवं संसार चक्रेस्मिन, भ्रमता तात ! संकटे । ज्ञानमेतन्मयाप्राप्त, मोक्षसम्प्राप्ति कारकम् ।। विज्ञाते यत्र सर्वोऽयमृग्जुः सामसंहितः । क्रियाकलापो विगुणो. न सम्यक प्रतिभाति मे ॥ तस्मादुत्पन्नबोधस्य, वेदैः किं में प्रयोजनम । गुरुविज्ञानतृप्तस्य, निरीहस्य सदात्मनः ॥ -मार्कण्डेयपुराण, १०/२७, २८, २६ २ मार्कण्डेयपुराण १०/३४, ३५ ३ मार्कण्डेय पुराण, १०/३७, ४४ ४ The Jainas in the History of Indian Literature, p. 7. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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