SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा पुराण साहित्य में मार्कण्डेय पुराण में प्रस्तुत प्रसंग से सम्बन्धित मधुर संवाद है । एक बार पक्षियों से जैमिनी ने प्राणियों के जन्म आदि से सम्बन्धित जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की। उस जिज्ञासा के समाधान में उन्होंने पिता-पुत्र का एक संवाद प्रस्तुत किया। भार्गव नामक ब्राह्मण का पुत्र सुमति था। उसने धर्मतत्त्व को गहराई से समझा था। एक दिन भार्गव ने पुत्र से कहा-वत्स ! प्रथम वेदों को पढ़कर तथा गुरुजनों की सेवा-शुश्रूषा कर, गृहस्थ-जीवन सम्पन्न कर, यज्ञ-याग प्रभृति कृत्यों से निवृत्त होकर पुत्रों को जन्म देकर उसके पश्चात् संन्यास ग्रहण करना, पहले नहीं।1 सुमति ने निवेदन किया--जिन बातों के लिए आप मुझे संकेत कर रहे हैं। मैंने पूर्व भी उसका अनेक बार अभ्यास किया है। उसके अतिरिक्त विविध प्रकार के शास्त्र और शिल्पों को भी मैंने अनेक बार पढ़ा है, इसलिए मुझे यह ज्ञात हो चुका है कि वेदों से मुझे क्या प्रयोजन है। पूज्यवर ! मैं इस विराट् संसार में बहुत ही परिभ्रमण कर चुका है। मैंने अनेक बार माता-पिता के संयोग और वियोग का भी अनुभव किया। सुख और दुःख को भी सहन किया है, जन्म एवं मृत्यु के चक्र में चंक्रमण करते हुए मुझे विशिष्ट ज्ञान हुआ है । मैं अपने लाखों पूर्वजन्मों को निहार रहा हूँ। मुझे मोक्ष प्राप्त कराने वाला ज्ञान समुत्पन्न हो चुका है। उस विशिष्ट ज्ञान के कारण ऋक्, यजु, साम, प्रभृति वेदों के क्रिया-कलाप ५ वेदानधीत्य सुमते ! यथानुक्रम मादितः । गुरु शुश्रूषणेव्यग्रो, भैक्षान्नकृतभोजनम् ॥ ततो गार्हस्थ्यमास्याय चेष्ट्वा यज्ञाननुत्तमान् । इष्टमुत्पादयापत्यमाश्रयेथा वनं ततः ॥ -मार्कण्डेय पुराण, १०/११,१२ २ तातैतद् बहुशोभ्यस्तं, यत्त्वयाद्योपदिश्यते । तथैवान्यानि शास्त्राणि, शिल्पानि विविधानि च ॥ ............ । उत्पन्नज्ञानबोधस्य, वेदैः किं मे प्रयोजनम ॥ -मार्कण्डेय पुराण, १०/१६,१७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy