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________________ १९२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा उत्तराध्ययन जस्सत्थि मच्चुणा सक्खं, जस्स वऽत्थि पलायणं । जो जाणे न मरिस्सामि, सो हु कंखे सुए सिया ॥२७।। अज्जेव धम्म पडिवज्जयामो, जहिं पवन्ना न पुणब्भवामो। अणागयं नेव य अस्थि किंचि, सद्धाखमं णे विणइत्तु रागं ॥२८॥ हस्तिपाल जातक यस्स अस्स सक्खी मरणेन राज जराय मेत्ती नरविरियसेट्ठ । यो चापि जज्जा स मरिस्सं कदाचि, पस्से य्युतं वस्ससतं अरोगं ॥७॥ महाभारत श्व कार्यमद्य कुर्वीत, पूर्वाह्न चापराह्निकम् । न हि प्रतीक्षते मृत्युः, कृतमस्य न वा कृतम् ॥१५।। को हि जानाति कस्याद्य, मृत्युकालो भविष्यति । अबुद्ध एवाक्रमते, मीनान् मीनग्रहो यथा ॥१५॥ पुत्रस्यैतद् वचः श्रुत्वा, यथा कार्षीत् पिता नृपः। तथा स्वमपि वर्तस्व, सत्यधर्म परायणः ॥३६॥ हस्तिपाल जातक अवमी ब्राह्मणो कामे, ते त्वं पच्चावमिस्ससि । वन्तादो पुरिसो राज, न सो होति पसंसियो ॥१८।। पुरोहियं तं ससुयं सदारं, सोच्चाऽभिनिक्खम्म पहायभोए। कुडुम्ब सारं विउलुत्तमं तं, रायं अभिक्खं समवाय देवी ॥३७॥ वन्तासी पुरिसो रायं, न सो होइ पसंसिओ। माहणण परिच्चतं, धणं आदाउमिच्छसि ॥३८॥ नागो व्व बन्धणं छित्ता, इदं वत्वा महाराज, अप्पणो वतहिं वए। एसुकारी दिसम्पति । एयं पत्थं महारायं ! रहें हित्बान पबजि, उसुयारि त्ति मे सुयं ॥४८॥ नागो छेत्वा व बंधनं ॥२०॥ सरपेन्टियर ने उत्तराध्ययन की ४४-४५ गाथा की ओर ध्यान आक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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