SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण कथाएँ १८७ महाभारत में प्रस्तुत कथा की तरह महाभारत, शान्तिपर्व, अध्याय १७५ में भी और अध्याय २७७ में जो पिता-पुत्र के संवाद आये हैं, उन संवादों से सहज रूप से तुलना की जा सकती है। यद्यपि दोनों अध्यायों का प्रतिपाद्य विषय एक है, नामों में भी कोई अन्तर नहीं है, दोनों में सम्राट युधिष्ठर भीष्मपितामह से कल्याण का मार्ग जानना चाहते हैं, समाधान प्रदान करते हुए भीष्मपितामह एक ब्राह्मण और उसके एक मेधावी पुत्र का संवाद जो प्राचीन इतिहास में आया है, वह उदाहरण रूप में प्रस्तुत करते हैं। उत्तराध्ययन में त्रेपन गाथाएं हैं तो महाभारत में उनचालीस श्लोक हैं। अर्थ और शब्द साम्य दोनों ही पाठक को विस्मय में डाल देते हैं। जैन और बौद्ध कथा-वस्तु में पिता और पुत्र के साथ ही राजा एवं रानी का पूरा सम्बन्ध है तथा यह बताया गया है कि वे अन्त में प्रव्रजित होते हैं, जबकि महाभारत में पिता-पुत्र का ही मुख्य संवाद है । अन्त में पूत्र के उपदेश से वे सत्य-धर्म को ग्रहण करते हैं । महाभारत के अध्ययन से यह भी स्पष्ट है कि पिता पुत्र को ब्राह्मण धर्म की बातें समझाता है, और उसे वह कहता है-वत्स ! वेदों का गहन अध्ययन करो, गृहस्थाश्रम को धारण करो। बिना पुत्र पैदा हुए पितरों की सद्गति नहीं होती, यज्ञ-याग करो । उसके पश्चात् वानप्रस्थाश्रम को ग्रहण करो। पिता के तर्कों का पुत्र समाधान करते हुए कहता है- आपका कथन सत्य है, पर आप जरा चिन्तन करें, संन्यास के लिए काल की मर्यादा कोई आवश्यक नहीं है, धर्माचरण करने के लिए मध्यम वय अधिक उपयुक्त है। जो भी कर्म हैं, उनका फल अवश्य मिलता है। आपने यज्ञ के लिए कहा, पर हिंसा-युक्त जो यज्ञ है, वह तामस यज्ञ है और वह यज्ञ साधक के लिए करने योग्य नहीं है । त्याग, तप और सत्य ही सच्चा शान्ति का राजपथ है। इस विश्व में त्याग के समान सुख नहीं है । सन्तान संसार से पार नहीं उतार सकती। विराट वैभव और परिजन त्राण-प्रदाता नहीं हैं, इसलिए आत्मा की अन्वेषणा करनी चाहिए । पुत्रों ने अपनी चर्चा में जो तथ्य दिए हैं, वे तथ्य श्रमण परम्परा के अधिक अनुकूल हैं । यहाँ तक कि महाभारत और हस्तिपाल जातक में जो श्लोक आए हैं, उन श्लोकों में तथा उत्तराध्ययन को प्रस्तुत कथा में जो गाथाएँ आई हैं, उन में बहुत कुछ समानता है । हम यहाँ शोधाथियों के लिए तुलनात्मक दृष्टि से अध्ययन करने हेतु गाथाएँ और श्लोक प्रस्तुत कर रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy