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________________ १८६ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा परीक्षा लेता है। पिता और पुत्रों में परस्पर संवाद होता है। चारों पुत्र क्रमशः अपने पिता के सामने जीवन की नश्वरता, संसार की असारता और कामभोगों की क्षणिकता का प्रतिपादन करते हैं । चारों ही प्रव्रज्या ग्रहण करते है। पुरोहित भी दीक्षा ग्रहण करता है। दूसरे दिन ब्राह्मणी प्रवजित हो जाती हैं तथा राजा-रानी भी प्रव्रज्या ले लेते हैं । सरपेण्टियर ने लिखा है-इषुकार के कथानक के साथ बौद्ध कथा-वस्तु की अत्यधिक समानता है । इषुकार की कथा बौद्ध कथा-वस्तु से प्राचीन होनी चाहिए। डा० घाटगे का अभिमत है कि जैन कथावस्तु व्यवस्थित, स्वाभाविक, यथार्थ और जातक से प्राचीन है। उन्होंने यह भी लिखा है-जातक की कथा, कथा-वस्तु की दृष्टि से पूर्ण है, उसमें पुरोहित के चारों पुत्रों का विस्तार से निरूपण है; जब कि जैन कथा में उसका अभाव है। द्वितीय अन्तर यह है कि जातक में पुरोहित के चार पुत्रों का उल्लेख हैं, जबकि उत्तराध्ययन में दो पुत्रों का ही वर्णन है । जैन कथा में राजा और पुरोहित के बीच सम्बन्ध नहीं बताया गया है, जबकि जातक में पूरोहित और राजा का सम्बन्ध है। पुरोहित पुत्रों की परीक्षा लेने के लिए राजा से परामर्श करता है और दोनों मिलकर पुत्रों की परीक्षा लेते हैं। जैनदृष्टि से जब पुरोहित सपरिवार दीक्षित हो जाता है तो राजा उस सम्पत्ति पर अपना अधिकार समझकर उस पर स्वामित्व स्थापित करता है। इससे रानी का मन वैराग्य से भर जाता है। वह स्वयं दीक्षित होने के लिए प्रस्तत होती है और साथ ही राजा को भी प्रेरणा देती है। वह बात बहत ही स्वाभाविक और यथार्थ भी है, पर जातक कथा में ऐसी स्वाभाविकता नहीं है । जातक कथा-वस्तु में न्यग्रोध वृक्ष के देवता द्वारा चार पुत्रों का वरदान पुरोहित को प्राप्त होता है, जबकि राजा को पुत्र की अत्यधिक आवश्यकता होने पर भी उसे एक भी पुत्र प्राप्त नहीं हुआ। इससे यह स्पष्ट है कि यह कथा जैन कथा-वस्तु से बाद में लिखी गई है। This legend certainly presents a rather striking resemblance to the prose introduction of the Jataka 509, and must consequently be old. -The Uttaradhyayana Sutra, p. 332, Fo. t note No. 2 २ Annals of the Bhandarkar Oriental Research Institute, Vol. 17. [1935.36], 'A few Parallels in Jain and Buddhist Works' pp. 343-344. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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