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________________ ४ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा जैन कथाओं को कथाकारों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रश आदि कई भाषाओं में प्रणयन कर एक ओर भाषा को समृद्ध किया है तो दूसरी ओर जनता की भावना को परिष्कृत-प्रतिष्ठित किया है । संस्कृति को उदात्त स्वरूप प्रदान किया है तो ज्ञान के अनेक अभिनव स्रोत भी समुद्घाटित किये हैं। जनपदीय बोलियों में भी जैन लेखकों ने कथा-साहित्य को पर्याप्त मात्रा में रचा/लिखा है। जैनाचार्यों ने इन कथाओं के माध्यम से गहन सैद्धान्तिक तत्वों को सुगम बनाया है तथा श्रावकों एवं साधारण जनता ने इनके द्वारा अपनी सहज प्रवृत्तियों को विशुद्ध बनाने का सतत् प्रयास किया है। जैन विद्वानों ने इन आख्यानों में मानव जीवन के कृष्ण और शुक्ल पक्षों को उजागर किया है लेकिन आख्यान का समापन शुक्ल पक्ष की प्रधानता दिग्दर्शित कर आदर्शवाद को प्रतिष्ठित किया है। कथा साहित्य की दृष्टि से जैन-साहित्य बौद्ध-साहित्य की अपेक्षा अधिक सफल और समृद्ध है । जैन कथाओं में भूत, वर्तमान दुःख-सुख की व्याख्या या कारण निर्देश के रूप में आता है। वह गौण है । मुख्य है वर्तमान। जबकि बौद्ध जातकों में वर्तमान अमुख्य है । वहाँ बोधिसत्व की स्थिति विगत काल में ही रहती है। जैन कथाओं में अनेक रूपक कहानियाँ भी हैं। एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा। एक तालाब है । उसमें खिले हुए कमल भरे हैं। मध्य में एक बड़ा कमल है। चार ओर से चार मनुष्य आते हैं और वे उस बड़े कमल को हथियाना चाहते हैं। प्रयत्न करते हैं परन्तु सफल नहीं होते। एक भिक्ष तालाब के किनारे से कुछ शब्द बोलकर उस बड़े कमल को प्राप्त कर लेता है। यह सूयगड (सूत्रकृतांग) आगम की रूपक कहानी है। इस रूपक के द्वारा यह समझाया गया है कि विषयभोग का त्यागी-साधु, राजा-महाराजा आदि का संसार से उद्धार कर देता है। इस प्राचीन कथा साहित्य से, जिसका ऊपर वर्णन हुआ है, तत्व ग्रहण कर आगे के लेखकों ने संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में अनेक कहानियाँ रची हैं । अपभ्रंश के 'पउमचरिउ' एवं 'भविसयत्तकहा' नामक ग्रंथ कहानी साहित्य की अमूल्य निधि हैं। इनमें अनेक उपदेशप्रद कहानियाँ उपलब्ध होती हैं। अधिक क्या कहा जाए, कथाओं के समूह के समूह जैन आचार्यों ने रच डाले हैं जिनके द्वारा जैन धर्म का प्रचार भी हुआ है और धार्मिक सिद्धान्तों को बल भी मिला है। इन कथाओं में जीवन के उदात्त एवं शाश्वत सत्यों का निरूपण हआ है। १. हरियाना प्रदेश का लोक साहित्य, डा. शंकरलाल यादव, पृष्ठ ३४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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