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विहंगावलोकन ३ है एवं वैयाक्तिक अवरोधों ने उनकी व्यापकता को विशेषतः अपरिहार्य प्रमाणित कर दिया है। ___जैन परम्परा के मूल आगमों में द्वादशांगी प्रधान और प्रख्यात हैं। उनमें नायाधम्मकहा, उवासगदसाओ, अन्तगडदसा, अनुत्तरोपपातिकदसा, विपाक सूत्र आदि समग्र रूप में कथात्मक हैं। इनके अतिरिक्त उत्तराध्ययन, सूयगडांग, भगवती, ठाणांग आदि में भी अनेक रूपक एवं कथाएँ हैं जो अतीव भावपूर्ण एवं प्रभावनापूर्ण हैं । तरंगवती, समराइच्चकहा तथा कुवलयमाला आदि अनेकानेक स्वतंत्र कथाग्रंथ विश्व की सर्वोत्तम कथा विभूति हैं। इस साहित्य का सविधि अध्ययन-अनुशीलन किया जाय तो अनेक अभिनव एवं तथ्यपूर्ण उद्भावनाएँ तथा स्रोत दृष्टि-पथ पर दृष्टिगत होंगे । जिससे जैन कथा वाङमय की प्राचीनता वैदिक कथाओं से भी अधिक प्राचीनतम परिलक्षित होगी । जैनों का पुरातन साहित्य तो कथाओं से पूर्णतः परिवेष्ठित है। प्रसिद्ध शोधमनीषी डॉ० वासुदेवशरण अग्रवाल 'लोककथाएँ और उनका संग्रहकार्य' शीर्षक निबन्ध में लिखते हैं-"बौद्धों ने प्राचीन जातकों की शैली के अतिरिक्त अवदान नामक नये कथा-साहित्य की रचना की जिसके कई संग्रह (अवदान शतक, दिव्यावदान आदि) उपलब्ध हैं। किन्तु इस क्षेत्र में जैसा निर्माण जैन लेखकों ने किया वह विस्तार, विविधता और बहुभाषाओं के माध्यम की दृष्टि से भारतीय साहित्य में अद्वितीय है। विक्रम संवत् के आरम्भ से लेकर उन्नीसवीं शती तक जैन साहित्य में कथा ग्रंथों की अविच्छिन्न धारा पायी जाती है। यह कथा साहित्य इतना विशाल है कि इसके समुचित सम्पादन और प्रकाशन के लिए पचास वर्षों से कम समय की अपेक्षा नहीं होगी। जैन साहित्य में लोक कथाओं का खुलकर स्वागत हुआ। भारतीय लोक-मानस पर मध्यकालीन साहित्य की जो छाप अभी तक सुरक्षित है उसमें जैन कहानी साहित्य का पर्याप्त अंश है । सदयवच्छ-सावलिंग की कहानी का जायसी ने पदमावत में और उससे भी पहले अब्दुल रहमान ने संदेशरासक में उल्लेख किया है। यह कहानी बिहार से राजस्थान और विध्य प्रदेश के गाँव-गाँव में जनता के कंठ-कंठ में बसी है। कितने ही ग्रंथों के रूप में भी वह जैन साहित्य का अंग है।"2
१. अभ्यर्थना, जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन, श्रीचन्द्र जैन, पृष्ठ ११ । २. आजकल, लोक कथा अंक, पृष्ठ ११ ।
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