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२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा प्राचीन परम्परा है जिसमें वसुदेव हिंडी, पंचतंत्र, हितोपदेश, बैताल पंचविंशतिका, सिंहासन द्वात्रिंशिका, शुकसप्तति, बृहत्कथामंजरी, कथासरित्सागर, आख्यानयामिनी, जातक कथाएँ आदि विशेषतः उल्लेख्य हैं ।।
कथा साहित्य-सरिता की बहुमुखी धारा के वेग को क्षिप्रगामी और प्रवहमान बनाने में जैन कथाओं का योगदान महनीय है। जैन कथा उस पुनीत स्रोतस्विनी के समान है जो कई युगों से अपने मधुर सलिल से जाने-अनजाने धरती के अनन्त कणों को सिंचित कर रही है एवं परिचितअपरिचित करोड़ों प्यासे कंठों की प्यास बुझा रही है। इस कथा-सरिता में सर्वत्र मानवता की ललित लोल लहरें शैली-शिल्प के मनोरम सामंजस्य से परिवेष्ठित हैं । यह इतनी विशद है कि इसके 'अथ' तथा 'इति' की परिकल्पना करना कठिन है । इसके 'जीवन' में आदर्शों के प्रति निष्ठा है
और चिरपोषित संशयों एवं अविश्वासों के प्रति कभी मौन और कभी सन्तप्त विद्रोह है । इसके दो मनोरम तट हैं-भाव एवं कर्म। इन दोनों भव्य किनारों के सहारे इस प्रवाहिनी ने लोक-जीवन की दूरी को नापा है, हर्ष-विषाद एवं संकीर्णता-उदारता के अपरिमित मन्तव्यों को पहचाना है, विरामहीन यात्रा के कटु अनुभवों को परखा है एवं दो विभिन्न युगों के अलगाव को भी समझा है। इस जैन-कथा-तटिनी की गाथा बड़ी सुहावनी है। वस्तुतः जैन कथाओं की व्यापकता में विश्व की विभिन्न कथा-वार्ताओं को प्रश्रय मिला है। फलतः जगत की कहानियों में जैन कथाओं की साँसें किसी न किसी रूप में संचरित होती रहती हैं । एक ओर इनमें भोगविरक्ति और संयम-सदाचार की प्रतिध्वनियाँ हैं तो दूसरी ओर जीवन के शाश्वत सुख-स्वर भी गहरी आस्था को लिए हुए यहाँ मुखर हैं। संस्कृति, जितनी अधिक कथाओं के अन्तराल में सन्निहित है, उतनी अधिक साहित्य की अन्य विधाओं में परिलक्षित नहीं हो पाई है। मानव-जीवन के जिस सार्वजनीन सत्य की मौटी में संस्कृति के चिरंतन तत्त्वों की प्रतिष्ठा मानी गई है उसका प्रथम उन्मेष इन्हीं जैन कथाओं में सुलभ है। इन कहानियों की गरिमा एवं उपयोगिता को न काल-भेद क्षीण इर सके हैं और न व्यक्तिगत हठीला गुमान धूमिल बना सका है। प्रत्युत काल-खंडों की प्राचीनता ने इन कथाओं को अधिक सफल बनाया
१. जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन, श्रीचन्द्र जैन, पृष्ठ २८ । २. वही, पृष्ठ ११ ।
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