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________________ श्रमण कथाएँ | १८३ वीतराग प्रभु की उपासना में संलग्न हो जाते । यहाँ पर प्रस्तुत कथानक में एक 'ववहार' शब्द आया है, जिसका संस्कृत रूप 'व्यवहार' है । आगम युग में यह शब्द क्रय-विक्रय, आयात और निर्यात के अर्थ में व्यवहृत हुआ है और 'वध्य मंडन शोभाक' शब्द दण्ड-विधान के अर्थ में प्रयुक्त था। तस्करों को कठोर दण्ड दिया जाता था। उसे कनेर के फूलों की माला तथा लाल वस्त्र पहनाये आते थे। उसके कुकृत्यों को विज्ञापना नगर के मुख्य मार्गों से वध-भूमि की ओर ले जाकर की जाती थी। मृगापुत्र और बलश्री श्रमण उत्तराध्ययन, अध्ययन उन्नीस में मृगापुत्र और बलश्री श्रमण का वर्णन आया है। सुग्रीव नगर में बलभद्र और मृगावती का पुत्र बलश्री था । पर वह 'मृगापूत्र' के नाम से प्रसिद्ध था। युवा होने पर उसका पाणिग्रहण हुआ। वह पत्नियों के साथ राजप्रासाद के गवाक्ष में बैठा हुआ नगर का अवलोकन कर रहा था, उसकी दृष्टि निर्ग्रन्थ मूनिराज पर गिरी। मुनि के तेजोदीप्त ललाट, चमकते हुए नेत्र, और तपस्या से अत्यन्त कृश शरीर को वह अपलक दृष्टि से देखता रहा। चिन्तन तीव्र हुआ-मैंने ऐसा रूप पहले भी देखा है, उसे जातिस्मृतिज्ञान उत्पन्न हो गया-मैं पूर्वभव में श्रमण था। इस अनुभूति से मन वैराग्य से भर गया । माता-पिता से उसने निवेदन किया-मैं प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता हूँ । यह शरीर अनित्य है, अशुचिमय और संक्लेशों का भाजन है । जिसे आज नहीं तो कल अवश्यमेव छोड़ना पड़ेगा । माता-पिता ने दुश्चरता और कठोरता का परिज्ञान कराया। तुम सुकोमल हो, तुम्हारे लिए श्रमणजीवन का पालन करना कठिन है। श्रमण-जीवन यावज्जीवन का होता है। बालुका कवल की तरह निस्वाद और असिधारा की तरह दुश्चर है। श्रमण-धर्म स्वीकार करने पर रोग की चिकित्सा कौन करेगा ? उत्तर में मृगापुत्र ने कहा-अरण्य में बसने वाले मृग आदि पशु-पक्षियों की कौन चिकित्सा करता है, और कौन उन्हें भक्तपान देता है ? वैसे ही मृगचारिका से मैं अपना जीवन यापन करूंगा। अन्त में मुनि-धर्म स्वीकार कर मृगापुत्र श्रमण-धर्म का परिपालन कर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुए। मृगापुत्र और माता-पिता का संवाद बड़ा ही महत्वपूर्ण है तथा साथ ही प्रेरणादायी भी है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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