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________________ १८२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा कर रहा था। उसने देखा- राजपुरुष एक व्यक्ति को वध-भूमि की ओर ले जा रहे हैं। उसके वस्त्र लाल हैं और गले में कनेर की माला है। उसका मन संवेग से भर गया। माता-पिता की आज्ञा लेकर वह दीक्षित बन गया। कर्मों को नष्ट कर वह सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हुआ। प्रस्तुत कथानक में समुद्र-यात्रा का उल्लेख हुआ है। उस युग में भारत के व्यापारी दूर-दूर तक व्यापार के लिए जाते थे। सामुद्रिक व्यापार उन्नत अवस्था में था । व्यापारियों के निजी यान-पात्र हुआ करते थे । वे एक स्थान से दूसरे स्थानों पर माल लेकर जाते थे। नदियों के द्वारा भी माल आता था। नदी तट पर उतरने के लिए स्थान बने हुए थे। निशीथभाष्य में चार प्रकार की नावों का उल्लेख मिलता है--१. अनुलोमगामिनी २. प्रतिलोमगामिनी ३. तिरिच्छसंतारणी (एक तट से दूसरे तट पर सरल रूप से जाने वाली) और ४. समुद्रगामिनी। इनके अतिरिक्त उर्ध्वगामिनी, अधोगामिनी, योजनवेलागामिनी एवं अर्धयोजनवेलागामिनी इन चार नामों का भी उल्लेख है। समुद्रयात्रा खतरों से खाली नहीं थी। कई बार इतने भयंकर उपद्रव आ जाते कि जहाज छह-छह महीने तक चक्कर काटते रहते । देवी-देवताओं के उपद्रव से बचने के लिए उनकी मनौतियाँ भी की जाती थी। जहाज फट जाने पर यात्रियों को बड़ी कठिनाई होती थी। जहाज डूबने के वर्णन भी आगम-साहित्य में यत्रतत्र आये हैं। जब प्रतिकूल पवन चलता, आकाश बादलों से आच्छन्न हो जाता, उस समय जहाज में बैठने वाले यात्रियों के प्राण संकट में पड जाते। उन्हें दिशाभ्रम हो जाता । वे उस विकट बेला में यह निर्णय नहीं ले पाते कि उन्हें क्या करना चाहिए। या तो ऐसे समय में जीने की आशा छोडकर दीन भाव से बैठ जाते या समुद्र की उपासना करते । अथवा १. निशीथभाष्य, पीठिका १८३. २. (क) निशीथ सूत्र १८/१२-१३. (ख) महानिशीथ ४१/३५, (ग) गच्छाचार वृत्ति पृ० ५०. ३. उत्तराध्ययन टीका १८, पृ० २५२ अ. ४. ज्ञाताधर्मकथा २/९ पृ० १२३. ५. (क) ज्ञाताधर्मकथा १७ पृ० २०१, (ख) कथासरित्सागर, पेन्जर, जिल्द ७, अ. १०१, पृ० १४६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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