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________________ श्रमण कथाएँ । १८१ अप्पा कत्ता विकत्ता य, अत्तना व कतं पापं, बन्धुरात्मात्मनस्तस्य, दुहाण य सुहाण य। अत्तजं अत्तसम्भवं । येनात्मैवात्मना जितः । अप्पा मित्तम मित्त च, अभिमन्थति दुम्मेधं । अनात्मनस्तु शत्र त्वे, 1 दुप्पट्ठिय सुपटिओ।३७॥ वजिरं वस्समयं मणि ।। वर्तेतात्मैव शत्रुवत् १६) अत्तना व कतं पापं, अत्तना संकिलिस्सति । अत्तना अकतं पापं, अत्तना व विसुज्झति ॥ सुद्धि असुद्धि पच्चत्त, नाझो अञ्ज विसोधये ।। न तं अरी कण्ठछेत्ता करेइ, दिसो दिसं यन्तं कयिरा, जं से करे अप्पणिया दुरप्पा। वेरी वा पन वेरिनं । से नाहिई मच्चुमुहं तु पत्ते, मिच्छापणिहितं चित्तं । पच्छाणुतावेण दयाविहूणो ।४८। पापियो नं ततो करे ।१०। मुण्डकोपनिषद दुविहं खवेऊण य पुण्ण पावं, यदा पश्यः पश्यते रुक्मवर्ण निरंगणे सव्वओ विप्पमुक्के। कतरिमीशं पुरुषं ब्रह्मयोनिम् । तरित्ता समुद्द व महाभवोघं, तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय समुद्दपाले अपुणागमं गए ।२४। निरंजनं परमं साम्यमुपैति ॥३॥१३॥ उपर्युक्त गाथाओं में भावों में तो एकरूपता है ही साथ ही विषय की दृष्टि से भी अत्यधिक समानता है। समुद्रपालीय उत्तराध्ययन, अध्ययन इक्कीस में समुद्र पालोय कथानक आया है। चम्पा नगरी में पालित नामक श्रमणोपासक था। उसका व्यापार दूर-दूर तक फैला हुआ था। एक बार सुपारो, सोना आदि वस्तुएँ लेकर वह सामुद्रिक यात्रा के लिए यान-पात्र पर आरूढ़ होकर प्रस्थित हुआ। वह समुद्र के किनारे 'पिहुण्ड' नगर में रुका। एक सेठ ने अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ किया। नवोढ़ा पत्नी गर्भवती हुई। समुद्र यात्रा के बोच ही उसने पुत्र को जन्म दिया । उसका नाम 'समुद्रपाल' रखा । वह एक बार अपने भव्य प्रासाद के गवाक्ष में बैठा हुआ नगरश्री का अवलोकन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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