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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
हुए कहा- शरीर सम्पदा से आप ऐश्वर्यशाली प्रतीत होते हैं, फिर अनाथ कैसे ? मैं आपका नाथ बनता हूँ । मेरे साथ चलें । सुखपूर्वक भोग भोगें ।
मुनि ने कहा- तुम स्वयं अनाथ हो । मेरे नाथ कैसे बन सकोगे ? राजा को यह वाक्य तीक्ष्ण शस्त्र की तरह चुभ गया। उसने कहा- आप झूठ बोलते हैं । मेरे पास विराट् सम्पदा है, मेरे आश्रय में हजारों व्यक्ति हैं । ऐसी अवस्था में मैं अनाथ कैसे ? मुनि ने समाधान करते हुए कहा-तुम अनाथ का अर्थ नहीं जानते। मैं तुम्हें इसका रहस्य बताता हूँ । मैं गृहस्थाश्रम में कौशाम्बी नगरी में रहता था। मेरे पिता के पास विराट् वैभव था। मेरा विवाह उच्च कुल में हुआ था। मुझे एक बार असह्य अक्षिरोग हुआ। सभी पारिवारिक जनों ने रोग दूर करने का खूब प्रयत्न किया, सभी ने मेरी वेदना पर आँसू बहाये, पर वे वेदना को बँटा नहीं सके । यह थी मेरी अनाथता ! मैंने दृढ़ संकल्प किया- यदि मैं वेदना से मुक्त हो जाऊँ तो मैं मुनि बन जाऊँगा । इस संकल्प के साथ मैं सो गया, ज्यों-ज्यों रात बीतती गई, मेरा रोग शान्त होता गया । सुबह होने पर मैंने अपने आपको पूर्ण रूप से स्वस्थ पाया । मैं श्रमण बनकर सभी त्रस एवं स्थावर प्राणियों का नाथ बन गया । मैंने आत्मा पर शासन किया और मैं विधिपूर्वक श्रमण धर्म का परिपालन करता हूँ । यह मेरी सनाथता है । सम्राट श्रेणिक ने पहली बार ही सनाथ अनाथ का विवेचन सुना। उसके ज्ञान चक्षु खुल गये । सम्राट श्रेणिक ने कहा- वस्तुतः आप ही सनाथ हैं और सभी के सच्चे बान्धव हैं । मैं आपसे धर्म का अनुशासन चाहता हूँ | मुनि ने उसे धर्म का मर्म बताया, वह धर्म में अनुरक्त हो गया। इस कथानक में अनेक महत्वपूर्ण विषय चर्चित हैं । इसमें आई हुई अनेक गाथाओं की तुलना अन्य साहित्य से की जा सकती है । उदाहरण के रूप में हम यहाँ कुछ गाथाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं
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धम्मपद
उत्तराध्ययन, अ० २०
अप्पा नई वेयरणी,
अत्ता हि अत्तनो नाथो, कोहि नाथ परोसिया ।
अप्पा मे कूडसामली ।
अपा कामदुहाणू,
अत्तना
व
सुदन्तेन,
अप्पा मे नन्दणं वणं | ३६ | नाथं लभति दुल्लभं ॥४॥
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गीता
उद्धरेदात्मनात्मानं, नात्मानमवसादयेत् । आत्मैव ह्यात्मनो बन्धु
रात्मैव रिपुरात्मनः । ५।
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