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श्रमण कथाएँ
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अज्झावयाणं वयणं सुणेत्ता, कत्थेव भट्ठा उपजोतियो च, उद्धाइया तत्थ बह कुमारा। उपज्झायो अथवा भण्डकूच्छि। दण्डेहि वित्तेहि कसेहि चेव, इमस्स दण्डं च वधं च दत्वा समागया तं इसि तालयन्ति ।।१६। गले गहेत्वा खलयाथ जम्मं ।।८।। गिरि नहेहिं खणह, गिरि नखेन खणसि, अयं दन्तेहिं खायह। अयो दन्तेन खादसि । जायतेयं पाएहि हणह, जातवेदं
पदहसि, जे भिक्खं अवमन्नह ॥२६॥ यो इसिं परिभाससि ॥६॥ अवहेडिय पिट्ठिसउत्तमंगे, आवेठितं पिट्ठितो उत्तमाङ्ग, पसारियाबाहु अकम्मचेठे। बाहं पसारेति अकम्मनेय्यं । निब्भेरियच्छे रुहिरं वमन्ते, खेतानि अक्खीनि कथा मतस्स उड्ढं मुहे निग्गयजीहनेत्ते ॥२६॥ को मे इयं पुत्तं अकासि एवं ॥११॥ पुटिव च इण्हि च अणागयं च, तदेव हि एतरहि च मय्हं, मणप्पदोसो न मे अत्थि कोइ। मनोपदोसो मम नत्थि कोचि । जक्खा हु वेयावडियं करेन्ति, पुत्तो च ते वेद मदेन मत्तो, तम्हा हु एए निहया कुमारा ।।३२।। अत्थं न जानाति अधिच्च
वेदे ॥१८॥ अत्थं च धम्मं च वियाणमाणा, अद्धा हवे भिक्खु मुहत्तेकेन, तुब्भे न वि कुप्पह भूइपन्ना। मम्मुह्यते व पुरिसस्स सञ्जा। तुब्भं तु पाए सरणं उवेमो, एकापराधं खम भूरिपञ, समागया सव्वजणेण अम्हे ॥३३॥ न पण्डिता क्रोध बला
भवन्ति ॥१६॥
अनाथी महानिर्ग्रन्थ उत्तराध्ययन के बीसवें अध्ययन में अनाथी महानिर्ग्रन्थ की जीवन गाथा उट्टङ्कित है । सम्राट श्रेणिक एक बार मण्डित कुक्षी उद्यान में पहुँचा । उद्यान की शोभा को देखते हुए उसकी आँखें एक ध्यानस्थ मुनि पर जा टिकीं। उस मुनि के अद्भुत रूप-लावण्य को देखकर वह विस्मित हुआ। उसने पूछा-आप तरुण हैं, भोग भोगने योग्य हैं, फिर आपने इस आयु में संन्यास क्यों ग्रहण किया ? उत्तर में मुनि ने कहा-मैं अनाथ था, मेरा कोई भी नाथ नहीं था, इसीलिए मैं मुनि बना। राजा ने मुस्कराते
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