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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
जिसमें देह-दमन के साथ चित्त-वृत्नियों का शोधन भी मुख्य रूप से रहा हआ है। धन्य अणगार जितने अधिक दीर्घ तपस्वी थे उतने ही स्थिर ध्यानयोगी भी थे । ध्यान की निर्मल साधना से तप उनके लिए तापस्वरूप नहीं था । श्रमण साहित्य में ही नहीं सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में इस प्रकार का वर्णन दुर्लभ है।
सुनक्षत्र अणगार
सुनक्षत्र अणगार का जन्म काकन्दी नगरी में हुआ था। वह भद्रा सार्थवाही का पूत्र था। स्नेह के वातावरण में उसका पालन-पोषण हुआ। भगवान् महावीर के उपदेश को श्रवण कर वे श्रमण बने और उत्कृष्ट तप की आराधना कर अनुत्तरविमान में उत्पन्न हुए। (अनु. व. ३, अ. २) सुबाहुकुमार आदि अन्य मुनि
विपाकसूत्र के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रथम अध्ययन में सुबाहुकुमार श्रमण का वर्णन है। हस्तिशीष नगर का स्वामो अदीनशत्रु था। सुबाहुकुमार उसका पुत्र था। पांच सौ कन्याओं के साथ उनका पाणिग्रहण हुआ। उनके साथ वह अपना जीवन-यापन कर रहा था। एक बार भगवान् महावीर का शुभागमन हुआ। सुबाहुकुमार ने श्रावक व्रत का ग्रहण किये। उनके दिव्य रूप को निहार कर गौतम ने प्रभु से जिज्ञासा प्रस्तुत की- यह दिव्य, कान्त और प्रिय रूप इन्हें कैसे प्राप्त हुआ ? इन्होंने पूर्वभव में ऐसा कौन-सा दान दिया ? भगवान् ने सुबाहु का पूर्वभव सुनाते हुए कहाहस्तिनापुर नगर में सुमुख नामक गाथापति था। सुदत्त अणगार, जो एक मास के उपवासी थे, उन्हें अत्यन्त उदार भावना से सुमख गाथापति ने आहारदान दिया। उस दिव्य दान के फलस्वरूप इसे यह महान् ऋद्धि तथा अद्भुत सौन्दर्य प्राप्त हुआ है । प्रस्तुत कथानक में सुखप्राप्ति का प्रधान कारण सुपात्रदान को बताया है। दान को अद्भुत शक्ति से दिव्य ऋद्धि और समृद्धि सहज ही उपलब्ध होती है। मानव समृद्धि तो चाहता है पर दान आदि देने से कतराता है। जिससे उसे विराट् वैभव की संप्राप्ति नहीं हो पाती। इसी तरह भद्रनन्दी, सुजातकुमार, सुवासवकुमार, जिनदास, धनपति, महाबल, भद्रनन्दीकुमार, महाचन्द कुमार और वरदत्तकूमार ये सभी राजकुमार थे। सभी ने भगवान महावीर के उपदेशामृत को सुनकर दीक्षा ग्रहण की। सुबाहुकुमार आदि समाधिपूर्वक आयु पूर्ण कर देव बने
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