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________________ श्रमण कथाएँ १७३ के उपदेश को श्रवण कर दीक्षित होते हैं तथा श्रमण बनकर गुणरत्नसंवत्सर आदि तप की आराधना कर अनुत्तर विमान में देव बनते हैं । इसी तरह दीर्घसेन, महासेन, लष्टदन्त, गूढ़दन्त, शुद्धदन्त, हल्ल, द्रुम, द्रुमसेन, महाद्रुमसेन, सिंह, सिंहसेन, महासिंहसेन, पुण्प्रसेन ये राजकुमार भी श्रेणिक सम्राट के पुत्र थे । इन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण कर विविध तपों की आराधना कर अनुत्तर विमान को प्राप्त किया । ये जो आख्यान इसमें दिये गये हैं, वे केवल संकेत मात्र है । पर ये सभी पात्र ऐतिहासिक हैं । ऐतिहासिक होने से बहुत से इतिहास के अनछुए पहलुओं पर प्रकाश डालने में सक्षम हैं । जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों ही परम्पराओं ने श्रेणिक के सम्बन्ध में विस्तार से लिखा है | हम यथाप्रसंग इस पर चिन्तन करेंगे । पर यह स्पष्ट है कि श्रेणिक की छब्बीस महारानियों ने और उनके पुत्र तथा पौत्रों ने भगवान् महावीर के पास प्रव्रज्या ग्रहण कर साधना से अपने जीवन को पावन बनाया था । इससे यह सिद्ध होता है कि श्रेणिक जैन था एवं भगवान् महावीर का अनन्य भक्त भी । धन्य अणगार अनुत्तरोपपातिक सूत्र वर्ग तीसरे अध्ययन प्रथम में धन्य अनगार का वर्णन है - धन्यकुमार काकन्दी की भद्रा सार्थवाही का पुत्र था । अपार वैभव उसके पास था । भगवान् के उपदेश को श्रवण कर वीर सैनिक की तरह वह साधना के पवित्र पथ पर बढ़ता है। उसके तपोमय जीवन का जो शब्दचित्र यहाँ प्रस्तुत किया गया है, उसे पढ़कर भौतिकवाद के तार्किक में भी व्यक्ति का श्रद्धा से सिर नत हो जाता है । मज्झिमयुग निकाय के महासिंहनाद सुत्त में वर्णन है - बुद्ध ने इसी प्रकार उत्कृष्ट तप की आराधना की थी । उन्होंने अपने साधना काल में जो छः वर्ष तक उत्कृष्ट तप की आराधना की वह भी इससे मिलती-जुलती है । कवि 'कुलगुरु कालिदास ने कुमारसम्भव महाकाव्य में पार्वती के तप का रोमांचकारी वर्णन किया है, पर धन्यकुमार के तप के समान उसमें सजीव वर्णन नहीं हो पाया है । धन्यकुमार के तप के वर्णन को पढ़कर अध्येता विस्मय से विमुग्ध बने बिना नहीं रहेगा । जैन तपःसाधना की विशेषता यह है कि वहाँ बाह्य तप के साथ आभ्यन्तर तप को भी महत्व दिया गया है, १. बोधिराजकुमार सुत्त, दोघनिकाय कस्सप सिंहनाद सुत्त । कुमारसम्भव पार्वती प्रकरण । Jain Education International For Private & Personal Use Only -- www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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