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________________ श्रमण कथाएँ १७१ नाम का माली था। बन्धुमती उसकी पत्नी थी। पुष्पाराम उसका उद्यान था। उस उद्यान के समीप ही मुद्गरपाणि यक्ष का यक्षायतन था । अजुनमाली के पूर्वज उस यक्ष के उपासक थे। अर्जुनमाली भी बचपन से ही उसका उपासक था। राजगृह में "ललित" नामक एक मित्र-मण्डली थी, जो उच्छृखल और स्वछन्द थी। उन्होंने बन्धुमती के साथ अमानवीय व्यवहार किया, जिससे अर्जुन मालाकार को अत्यधिक रोष आधा, पर उसे पहले ही बाँधकर उन्होंने गिरा रखा था। अपनी पत्नी के साथ वीभत्स काण्ड करते हए देखकर उसका खून खौल उठा, नसें फड़कने लगीं। उसने मन में राजा को भी धिक्कारा और अपने कुलदेव मुद्गरपाणि यक्ष पर भी उसे रोष आया कि उसकी मूर्ति के समक्ष उसकी पत्नी का शीलभंग किया जा रहा है। तू देवता होकर भी टुगर-मुगर देख रहा है। देव ने अपने भक्त की संतप्त आत्मा को देखा। तत्काल यक्ष अर्जुनमाली के शरीर में प्रविष्ट हुआ। उसका अद्भुत पौरुष जाग उठा। तड़-तड़ कर सब बन्धन टूट गये। यक्ष का मुद्गर उठाकर एक ही प्रहार में अर्जुन मालाकार ने छहों मित्रों और अपनी पत्नी को मिट्टी का ढेर बना दिया, तथापि उसका क्रोध शान्त नहीं हुआ । क्रोध से आगबबूला हुआ हाथ में मुद्गर लेकर वह बगीची के बाहर घूमता । रास्ते से गुजरने वाले राहगीरों में से छह पुरुष और एक स्त्री की हत्या करके ही मुंह में अन्न-जल लेता । नगर में भयंकर आतंक छा गया। राजा ने नगर का द्वार बन्द करवाकर यह उद्घोषणा करवा दी, कोई भी नगर के बाहर न जाये । समूची राजगृह एक कैदखाना बन गई। उसमें बैठकर सभी के दम घुट रहे थे। पर किसी का साहस नहीं था। भगवान महावीर का राजगृह में शुभागमन हुआ। जिस महानगरी में भगवान् ने चौदह वर्षावास किये, जहाँ प्रभु के भक्तों की कोई कमी नहीं थी, पर किसी का भी साइस अर्जुनमाली से जूझने का नहीं हो रहा था। जब सुदर्शन ने भगवान के आगमन का संवाद सुना तो उसका शौर्य दीप्त हो उठा । यह पारिवारिक जन तथा अन्य व्यक्तियों के इन्कार होने पर भी भगवान के दर्शनार्थ चल पड़ा। नगर का द्वार खुला और तुरन्त बन्द कर दिया गया। कुछ दूर चलने पर अर्जुनमाली हाथ में मुद्गर घुमाता हुआ बेतहाशा दौड़ता हआ सूदर्शन के सामने आ पहुँचा। उसकी रौद्र आकृति देखकर सामान्य व्यक्ति काँप जाता, पर सुदर्शन वहीं ध्यान-मुद्रा में खड़ा हो गया। उसने सुदर्शन पर प्रहार करने के लिए मुद्गर उठाया। उसका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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