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________________ १६८ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा भ्रमण कर रहे हैं । उस संस्कारी बालक ने गौतम की अंगुली पकड़ ली और अपने घर चलने के लिए आग्रह करने लगा | महारानी ने जब देखा तो उसका अंग-अंग प्रसन्नता से झूम उठा । अतिमुक्तक ने माता से कहाइन्हें इतना भोजन दीजिये, जिससे इनको दूसरे घर न जाना पड़े । भिक्षा लेकर गौतम महावीर के समीप पहुँचे । बालक अतिमुक्तक भी साथ ही था । भगवान् महावीर की अमृत वाणी को सुनकर उसने दीक्षा ग्रहण की / आचार्य अभयदेव ने लिखा है - उस समय अतिमुक्तक कुमार की उम्र छह वर्ष की थी । 1 1 एक बार वर्षा हो चुकी थी । स्थविरों के साथ अतिमुक्तक मुनि विहार-भूमि को निकले । बहते हुए पानी को देखकर बचपन के संस्कार उभर आये । मिट्टी के पाल को बाँधकर उसमें अपना पात्र छोड़ दिया और आनन्द विभोर होकर " तिर मेरी नैया, तिर" इस प्रकार बोल उठे । शीतल मंद पवन चल रहा था । उनकी नैया थिरक रही थी । प्रकृति नटी मुस्करा रही थी । स्थविरों ने अतिमुक्तक मुनि को श्रमण-मर्यादा से विपरीत कार्य करते हुए देखा, उनका अन्तर् का रोष मुख पर झलकने लगा । अतिमुक्तक सम्भल गये । उन्हें अपने कृत्य पर ग्लानि हुई । अन्तर् के पश्चात्ताप से उसने अपने आपको पावन बना दिया । स्थविरों ने पूछा - यह कितने भव में मुक्त होगा ? भगवान् ने बताया - यह इसी भव में मुक्त होगा, तुम इसकी निन्दा गर्हा मत करो । भले ही यह देह से लघु है, पर इसकी अन्तरात्मा बहुत ही विराट् है । अतिमुक्तक कुमार ने उत्कृष्ट तप की आराधना कर मुक्ति को वरण किया । भगवान् से -- श्रमण भगवान् महावीर ने अतिमुक्तक कुमार की आन्तरिक तेजस्विता को देखकर दीक्षा प्रदान की थी । जैनधर्म में कहीं पर भी बालदीक्षा का निषेध नहीं है, वहीं अयोग्य दीक्षा का निषेध है बालक भी उत्कृष्ट प्रतिभा का धनी हो सकता है और युवक तथा वृद्ध भी अयोग्य हो सकता है । जो भी योग्य हो, वह श्रमण-धर्म को स्वीकार कर अपने जीवन । १. 'कुमार समणे' त्ति षड्वर्षजातस्य तस्य प्रव्रजित्वात् आह च "छव्वरिसो पव्वइओ निग्गंथ रोइऊण पावयणं" ति एतदेव चाश्चर्यमिह अन्यथा वर्षाष्टकादारान्न प्रव्रज्या स्यादिति । - भगवती सटीक, भाग १, श० ५, उ० ४, सू० १८८, पत्र २१६-२० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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