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________________ श्रमण कथाएँ १६५ नामक मोर्यपुत्र था। उसके पास विराट् सम्पत्ति थी । एक दिन उस विराट वैभव का परित्याग कर उसने 'प्राणामा' प्रव्रज्या ग्रहण की और यह अभिग्रह धारण किया कि मैं छठ्ठ छठ्ठ तप करूंगा तथा सूर्य के सम्मुख दोनों हाथ ऊँचे कर आतापना लंगा। पारणे के दिन आतापना पात्र भूमि से नीचे उतरकर, लकड़ी का पात्र हाथ में लेकर शुद्ध ओदन ग्रहण करूँगा और फिर उसे इकबीस बार घोकर उसे आहार के रूप में उपयोग में लूंगा। प्राणामा प्रव्रज्या का धारक होने से वह इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रमण, आर्या, चण्डिका, राजा, मन्त्री पुरोहित, सार्थवाह, कौवे, कुत्ते, चाण्डाल आदि को जहाँ कहीं भी देखता, उनको प्रणाम करता । ऊँचे आकाश में देखकर ऊँचे तथा नीचे खड्डे आदि में देखकर नीचे प्रणाम करता। प्राणामा प्रव्रज्या वालों को सूत्रकृतांग में विनयवादी कहा है । औपपातिक, ज्ञाताधर्मकथा तथा अंगुत्तरनिकाय में विनयवादियों को अविरुद्ध भी कहा है। ये मोक्षप्राप्ति के लिए विनय को आवश्यक मानते थे। उत्तराध्ययन की टीका में भी यह स्पष्ट लिखा है-ये तापस सभी को प्रणाम करते थे। सूत्रकृतांग की टीका में इनके बत्तीस भेद कहे हैं । तामली तापस ने जब देखा कि उसका शरीर अत्यन्त कृश हो गया है तो उसने पास के लकड़ी आदि के उपकरणों को एकान्त स्थान में डाल कर पादपोपगमन संथारा किया। उस समय असुरेन्द्र चमर की राजधानी इन्द्र से रहित थी। असुरकुमार देवों ने अवधिज्ञान से देखकर तामली तपस्वी से प्रार्थना की-आप हमारे इन्द्र बनें! किन्तु उसने स्वीकार नहीं किया । और ईशानकल्प में ईशानेन्द्र बना। तामली तपस्वी ने साठ हजार वर्ष तक उत्कृष्ट तप की आराधना की थी। उससे वह ईशानेन्द्र बना। प्राचीन आचार्यों का अभिमत है-यदि सज्ञानी (जिनमतानुयायी) इतना १. सूत्रकृतांग १/१२/१ २. औपपातिक, सूत्र ३८, पृष्ठ १६६ ३. ज्ञाताधर्मकथा टीका, १५, पृष्ठ १६४ ४. अंगुत्तरनिकाय ३, पृष्ठ २७६ ५. सूत्रकृतांग १/१२/२ आदि की टीका ६. उत्तराध्ययन टीका १८, पृष्ठ २३० ७. सूत्रकृतांग टीका १/१२, पृष्ठ २०६ अ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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