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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
नरेश कंकण के शब्दों को सुनकर प्रतिबुद्ध होते हैं तो बौद्ध दृष्टि से मिथिलानरेश आम्र वृक्ष को देखकर प्रतिबोधित होते हैं।
सोनक जातक में भी कुछ प्रसंग. इससे मिलते-जुलते हैं ।।
महाभारत में माण्डव्य मुनि और जनक का मधुर संवाद है । भीष्म पितामह से युधिष्ठिर ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-तृष्णा क्षय का उपाय बताइए । भीष्म पितामह ने कहा-राजन् ! माण्डव्य मुनि ने यही जिज्ञासा प्रस्तुत की थी विदेहराज जनक से । उन्होंने समाधान करते हुए कहा ---
"सुसुखं बत जीवामि यस्य मे नास्ति किञ्चन ।
मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे दह्यति किञ्चन ॥" "मैं बहत ही सुख से जीवनयापन कर रहा है। इस विश्व में कोई भी वस्तु नहीं मेरी है । मिथिला नगरी के प्रज्वलित होने पर भी मेरा कुछ भी नहीं जलता है।"
___ जो विवेकी व्यक्ति हैं, उन्हें समृद्धि से युक्त विषय भी दुःखरूप ज्ञात होते हैं। अज्ञानी व्यक्ति विषय में लिप्त रहते हैं। जो कामजनित सुख हैं, वे तृष्णा क्षय होने पर सुख की सोलहवीं कला को तुलना भी नहीं कर सकते । उन्होंने आगे कहा- धन की अभिवृद्धि के साथ तृष्णा की भी अभिवद्धि होती है। ममकार ही दुःख का कारण है। भोग और आसक्ति से दुःख में अभिवृद्धि होती है। तृष्णा को छोड़ना अत्यन्त कठिन है । जो तृष्णा का परित्याग करता है, वह सुख के सागर पर तैरता है । इस तरह उत्तराध्ययन के प्रस्तुत कथा प्रसंग के साथ महाभारत में वर्णित इस संवाद की आंशिक तुलना की जा सकती है।
दूसरा प्रसंग यह है—एक बार भीष्म ने कहा-धन की तृष्णा से दःख और उसकी कामना के त्याग से परमसुख प्राप्त होता है। यह बात जनक ने भी कही है
अनन्तमिव मे वित्तं यस्य मे नास्ति किञ्चन । मिथिलायां प्रदीप्तायां, न मे दह्यति किञ्चन ॥
१. सोनक जातक, संख्या ५१६, जातक भाग ५, पृ. ३३१-३४६. २. महाभारत-शान्तिपर्व, अध्याय २७६, श्लोक ४ ३. महाभारत-शान्तिपर्व, अध्याय १७८, श्लोक २.
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