SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रमण कथाएँ १६१ कंगन क्यों बज रहा है ? उसने कहा-एक हाथ में दो कंगन हैं, परस्पर रगड़ने से शब्द होता है । जो अकेला है, वह शब्द नहीं करता। विवाद का मूल दो है। राजा आगे बढ़ा। एक उसकार (बाँस-फोड) एक आँख को बन्द कर देख रहा था। राजा ने जिज्ञासा प्रस्तुत की-तुम ऐसा क्यों देख रहे हो ? उसने कहा-दोनों आंखों से देखने पर रोशनी फैल जाती है, जिससे टेढी जगह का पता नहीं लगता । एक आंख के बन्द करने से टेढ़ापन स्पष्ट दिख जाता है और बांस सीधा किया जाता है । रानी सीवली पीछे-पीछे चल रही थी। राजा ने मूंज के तिनके से रेखा को खींचकर कहा-अब इसे मिलाया नहीं जा सकता। इसी तरह से मेरा और तेरा साथ नहीं हो सकता। रानी पुनः लौट गई। महाजनक अकेले आगे चले गये । यह कथा जातक में बहुत ही विस्तार के साथ दी गई है । हमने संक्षेप में सार प्रस्तुत किया है। पूर्णरूप से कथा समान न होने पर भी दोनों का प्रतिपाद्य प्रायः समान सा है। दोनों ही कथाओं में ये विचार प्रतिपादित किये गये हैं अन्यान्य आश्रमों से संन्यासाश्रम श्रेष्ठ है। सन्तोष त्याग में है, भोग में नहीं । सुख का मूल एकाकीपन है, और दुःख का मूल द्वन्द्व है । सुख अकिंचनता में है। साधना में विघ्न हैं:कामभोग ।। दोनों ही कथा-वस्तुओं में अनेक प्रसंग एक सदृश हैं । जैसे - 'सम्पति से युक्त मिथिला नगरी का परित्याग कर प्रवजित होना, मिथिला को प्रज्वलित बताकर प्रव्रज्या से विचलित करने का प्रयास करना, "मिथिला के जलने पर भी मेरा कुछ भी नहीं जल रहा है।" इस तरह ममत्व-रहित भाव व्यक्त करना दोनों ही कथा-वस्तुओं में है । जैनकथा-वस्तु की दृष्टि से इन्द्र नमि राजर्षि की परीक्षा करने आता है तो जातक की दृष्टि से सीवली देवी महाजनक राजा की परीक्षा करती है। जैनकथा की दृष्टि से मिथिला १. जातक ५३६, श्लोक १५८-१६१ २. जातक ५३६, श्लोक १६६-१६७. ३. (क) उत्तराध्ययन ९/४४ (ख) जातक २५-११५ ४. (क) वही १/४८, ४६ (ख) वही १२२ ५. (क) वही ६/१६ (ख) वही १६१-१६८ ६. (क) वही ९/१४ (ख) वही १२५ ७. (क) वही ६/२३ (ख) वही १३२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy