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________________ १६० जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा सैनिकों ने फल तोड़े। जिससे वह आम्र वृक्ष भो ठूठ को तरह हो गया। वन परिभ्रमण करके राजा लौटा । उसने देखा-जो वृक्ष पहले हरा भरा एवं फलों से लदा हुआ था, वह अब फल एवं पत्तों से रहित खड़ा था राजा ने माली से पूछा-यह वृक्ष फल-रहित कसे हुआ? माली ने सारी बात बता दी । राजा सोचने लगा-जो फलदार होते हैं, वे नौंचे जाते हैं। यह राज्य भी फलदार वृक्ष की तरह है, जो एक दिन नौंचा जाएगा। वह प्रतिबुद्ध हुआ । राजप्रासाद में रहते हुए भी वह विरक्त हो गया। उसे राजप्रासाद नरक की तरह प्रतीत होने लगा, वह चिन्तन करने लगा-मैं मिथिला को छोड़कर कब प्रवजित होऊँगा? रानियों ने रोकने का प्रयास किया। सीवली देवी ने एक उपाय खोजा । उसने महासेनारक्षक को बुलाकर आदेश के स्वर में कहा-तात ! राजा के जाने के मार्ग पर जो आगे-आगे पुराने घर हैं, जीर्णशालाएँ हैं, उनमें आग लगा दो। जहाँ-तहाँ घास-पत्ते जलाकर धुआँ पैदा कर दो। वैसा ही किया गया। सीवली देवी ने राजा से नम्र निवेदन करते हुए कहा--"घरों में आग लग रही है, ज्वालाएँ निकल रही हैं, खजाने जल रहे हैं, सोना-चांदी, मणि-मुक्ता सभी जलकर नष्ट हो रहे हैं। हे राजन् ! आप आकर उनको रोकने का प्रयास करें।" राजा महाजनक ने प्रत्युत्तर में कहा "सुसुखं बत जीवाम येसं नो नत्थि किञ्चनं । मिथिलाय उरहमानाय न मे किंचि अडव्हथ ॥ "मेरे पास कुछ भी नहीं है, मैं सूखपूर्वक जीता हूँ। मिथिला नगरी के जलने पर भी मेरा कुछ भी नहीं जलता।" "सुसुखं बत जीवाम येसं नो नत्थि किंचनं । रठे विलुप्पमानम्हि न मे किचि अजीरथ ।। सुसुखं बत जीवाम येसं नो नत्थि किचनं । पीतिभक्खा भविस्साम देवा आभास्सरा यथा ।" "मेरे पास कुछ भी नहीं है, मैं सुखपूर्वक जीता हूँ। राष्ट्र के नष्ट होने से मेरी कुछ भी हानि नहीं।" "मेरे पास कुछ भी नहीं है, मैं सुखपूर्वक जीता हूँ। जैसे--अभास्वर देव हैं, वैसे ही हम प्रीतिभक्षक होकर रहेंगे।" सभी का परित्याग कर राजा आगे बढ़ गया । देवी भी साथ ही थी। वे नगरद्वार पर पहुँचे । एक लड़की बालू रेती को थपथपा रही थी। उसके एक हाथ में कंगन था, वह बज रहा था। राजा ने पूछा-एक हाथ में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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