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________________ १५८ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा विदेह राज्य में दो नमि हुए और वे दोनों स्वयं के राज्य का परित्याग कर श्रमण बने । एक तीर्थकर हुए और एक प्रत्येकबुद्ध हुए। सदर्शनपूर में मणिरथ का राज्य था। युगबाह उसका कनिष्ठ भ्राता था। मदनरेखा युगबाहु की पत्नी थी । मणिरथ ने माया से युगबाहु को मार डाला । उस समय मदन रेखा गर्भवती थी। शील-रक्षा के लिए वह वन में चली गई। उसने वन में पुत्र को जन्म दिया। उस पुत्र को राजा पद्मरथ मिथिला ले गया और उसका नाम 'नमि' रखा। वह मिथिला का राजा बना। एक बार वह दाह-ज्वर से संत्रस्त हुआ। छह माह तक दाह-ज्वर की उपशान्ति के लिए विविध प्रकार के उपचार किये गये । स्वयं रानियाँ चन्दन घिसतीं और नमि के शरीर पर विलेपन करतीं। उनके हाथों में पहने हुए कंगनों की ध्वनि से नमि का सिर चढ़ गया। रानियों ने सौभाग्यचिन्ह स्वरूप एक-एक कंगन हाथों में रखकर शेष कंगन उतार दिये। ____नमि सोचने लगे--जहाँ दो हैं, वहाँ द्वन्द्व है, दुःख है। अकेलेपन में सुख है। विरक्तिभाव आगे बढ़ा, वे प्रवजित हुए। नमि को अकस्मात् प्रवजित होते देखकर इन्द्र ब्राह्मण का वेष बनाकर नमि को लुभाने के लिए प्रबल प्रयास करता है। उन्हें कर्तव्यबोध का पाठ पढ़ाना चाहता है। नमि राजर्षि ब्राह्मण को अध्यात्म की गहरी बातें बताते हैं । बौद्ध साहित्य में भी चार प्रत्येकबुद्धों का वर्णन है । पर उनके जीवन-चरित्र तथा बोधि-प्राप्ति के निमित्तों के उल्लेख में पृथकता है । डिक्सनरी ऑफ पाली प्रॉपर नेम्स ग्रन्थ में दो प्रकार के बुद्ध बताये हैंप्रत्येक बुद्ध और सम्मासम्बुद्ध ! जो अपने आप ही बोधि को प्राप्त करते हैं पर संसार को उपदेश प्रदान नहीं करते, वे "प्रत्येकबुद्ध" हैं। इन्हें उच्च आत्मदृष्टि पैदा होती है। वे जीवनपर्यन्त अपनी उपलब्धि का वर्णन नहीं करते, इसलिए वे "मौनबुद्ध' भी कहलाते हैं। वे दो हजार असंख्येय कल्प तक पारामी' की साधना करते हैं । ब्राह्मण, क्षत्रिय और गाथापति के १ दुन्निवि नमी विदेहा, रज्जाइं पहिऊण पव्वइया । एगो नमितित्थयरो, एगो पत्ते यबुद्धो अ॥ --उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा २६७ २ उत्तराध्ययन, सुखबोधावृत्ति, पत्र १३६ से १४३ । ३ कुम्भजातक, सं ४०८, जातक खण्ड ४, पृ० ३६ ४ डिक्सनरो ऑफ पाली प्रॉपर नेम्स, भाग २, पृष्ठ २६४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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