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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
शीघ्र तिर जा।1 रथनेमि ने भी उसी समय भगवान् के पास संयम ग्रहण किया ।
. एक दिन की घटना है-बादलों की गड़गड़ाहट से दिशायें काँप रही थीं। बिजलियाँ कौंध रही थीं। रेवतक का वनप्रान्तर सांय-सांय कर रहा था । साध्वी समूह के साथ राजीमती रेवतक गिरि पर चढ़ रही थो । एकाएक छमाछम वर्षा होने लगी। साध्वी समूह आश्रय की खोज में इधरउधर बिखर गया। बिछुड़ी हुई राजहंसिनी की तरह राजीमती ने एक अन्धेरी गुफा का शरण लिया। राजीमती ने एकान्त स्थान निहार कर सम्पूर्ण गीले वस्त्र उतार दिये और उन्हें सूखने के लिए फैला दिया।
राजीमती की फटकार से प्रबुद्ध बना हुआ रथनेमि श्रमण बनकर उसी गुफा में पहले से ही ध्यान मुद्रा में अवस्थित था। बिजली की चमक में निर्वस्त्र राजीमती को निहार कर रथनेमि विचलित हो गया। राजीमती की भी दृष्टि रथनेमि पर पड़ी। वह अपने अंगों का गोपन कर बैठ गई । कामविह्वल रथनेमि ने मधुर स्वर से कहा-हे सुरूपे ! मैं तुझे प्रारंभ से ही चाहता रहा हूँ। तू मुझे स्वीकार कर ! मैं तेरे बिना जीवन धारण नहीं कर सकता । तू मेरी मनोकामना पूर्ण कर, फिर समय आने पर हम दोनों संयम ग्रहण कर लेंगे।
राजीमती ने देखा कि रथनेमि का मनोबल ध्वस्त हो गया है । वे वासना से विह्वल होकर संयम से च्युत होना चाहते हैं । उसने कहा-तुम चाहे कितने भी सुन्दर हो, पर मैं तुम्हारी इच्छा नहीं करती । अगंधन कुल में उत्पन्न हुए सर्प मर जाना पसन्द करते हैं, किन्तु वमन किये हुए विष का पान नहीं करते । फिर तुम इस प्रकार की इच्छा क्यों कर रहे हो ? जैसे अंकुश से हाथी वश में हो जाता है वैसे ही रथनेमि का मन संयम सुस्थिर हो गया।
१ (क) वासुदेवो य णं भणइ, लुत्तकेसं जिइन्दियं ।
संसार सागरं घोरं, तर कन्ने ! लहु-लहु ॥ -उत्तराध्ययन, २२/३१ (ख) उत्तराध्ययन २२/३० २ (क) उत्तराध्ययन २२/३२
(ख) उत्तराध्ययन सुखबोध २६१
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