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श्रमण कथाएँ १५५.
जिज्ञासा यह है - रथनेमि भगवान अरिष्टनेमि के लघुभ्राता हैं, भगवान तीन सौ वर्ष गृहस्थाश्रम में रहे, तथा रथनेमि और राजीमती चार सौ वर्ष । राजीमती और अरिष्टनेमि के निर्वाण में सिर्फ चोपन दिन का अन्तर है। चौपन दिन के अन्तर का उल्लेख कवियों की रचना में मिलता है । यदि इस उल्लेख को प्रामाणिक माना जाय तो यह स्पष्ट है कि राजीमती का दो सौ वर्ष तक दीक्षित न होना तथा गृहस्थाश्रम में रहना चिन्तनीय विषय है । विज्ञों को इस सम्बन्ध में अपना मौलिक: चिन्तन प्रस्तुत करना चाहिए ।
उत्तराध्ययन सूत्र की सुखबोधा वृत्ति' तथा वादी वेताल शान्तिसूरि रचित बृहद्वृत्ति, मलधारी आचार्य हेमचन्द्र के भव-भावना ग्रन्थ की दृष्टि से भगवान अरिष्टनेमि के प्रथम प्रवचन को श्रवण कर राजीमती दीक्षा ग्रहण करती है और कलिकालसर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्र के अनुसार गजसुकुमाल मुनि के मोक्ष जाने के पश्चात् राजीमती, नन्द की कन्या एकवासा तथा यादवों की अनेक महिलाओं के साथ दीक्षा ग्रहण करती हैं । राजीमती यह सोचने लगी कि भगवान् अरिष्टनेमि धन्य हैं, जिन्होंने मोह को जोत लिया। मुझे धिक्कार है, जो मैं मोह के दलदल में फँसी हूँ । इसलिए मेरे लिए यही श्रेयस्कर है कि मैं दीक्षा ग्रहण करू। इस प्रकार राजीमती दृढ़ संकल्प कर कंघी से संवारे हुए काले केशों को उखाड़ डाला । श्री कृष्ण ने आशीर्वाद दिया - हे कन्ये ! इस भयंकर संसार रूपी सागर से तू
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१ (क) नेमवाणी, पृ० २२३ सं० - पुष्कर मुनिजी महाराज ।
(ख) श्री जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भाग ५, पृष्ठ २७४
२ परितुट्ठमणा य रायमई विपत्ता समोसरणं ।
- उत्तराध्ययन सुखबोधा - पृ० २८१
३ इत्थं चासौ तावदवस्थिता यादवन्यत्र प्रविहृत्य तत्रैव भगवानाजगाम, तत उत्पन्न केवलस्य भगवतो निशम्य देशनां विशेषत उत्पन्न वैराग्या किं कृतवती - त्याह 'अहे' त्यादि । - वृहद्वृति पत्र ४६३
३ भव- भावना - ३७१६, १७, पृष्ठ १५६
४ त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, ८ / १० / १४८
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