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श्रमण कथाएँ
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ले । थावच्चापुत्र ऊपर आया, किन्तु उसे सुमधुर स्वर लहरियों के स्थान पर कर्ण-कटु आक्रन्दन सुनाई दिया और साथ ही भयावना-सा कोलाहल भी उसके कानों में गिरा । उसका मन रु आसा होने लगा। वह उल्टे पैरों लौटकर माता के पास पहुँचा। माँ ! जो गीत पहले सुहावने लगते थे, वे अब डरावने क्यों लग रहे हैं ? माँ ने पड़ौसी की आकस्मिक विपत्ति को समझ लिया और उसकी आँखों से भी आँसू छलक पड़े। माँ ने अपने अबोध बालक को गले लगाते हुए कहा--वत्स ! जिस पुत्र का उत्सव मनाया जा रहा था, वह पुत्र मर गया। इसीलिए गायन रुदन के रूप में बदल गया। प्रसन्नता के स्थान पर शोक की काली घटाएं छा गयीं।
माँ ! क्या मैं भी एक दिन इसी तरह मर जाऊँगा? माँ ने उसके मुंह को चूमते हुए कहा-तू मेरी आँखों का तारा है, नयनों का सितारा है। तू क्यों मरेगा ? मरेंगे तेरे दुश्मन ! यावच्चापुत्र के भोले-भाले चेहरे पर वही जिज्ञासा चमक रही थी। अन्त में माँ को कहना पड़ा-वत्स! एक दिन सभी को मरना है । पर सलौने बेटे ऐसी बात नहीं किया करते । मन में यह प्रश्न पनपता रहा और एक दिन अर्हत् अरिष्टनेमि की वाणी को श्रवण कर साधना के महामार्ग पर बढ़ने के लिए वह तत्पर हो गया। श्रीकृष्ण ने उसका अभिनिष्क्रमण महोत्सव मनाया। वासुदेव श्रीकृष्ण की उत्कट धार्मिक भावना इसमें उजागर हो रही है। श्रीकृष्ण, वासूदेव जैसे वरिष्ठ पद के धनी होते हुए भी साधना के प्रति उनके अन्तर्मानस में कितनी श्रद्धा थी ? यह इससे स्पष्ट होता है।
थावच्चापुत्र के अन्तर्मानस में वैराग्योत्पत्ति का मूल कारण मृत्युदर्शन है, तो तथागत बुद्ध के जीवन में भी वैराग्योत्पत्ति का एक कारण मृत्यु-दर्शन है। मृत्यु, जीवन का अन्तिम सत्य है। यदि व्यक्ति इसे समझ ले तो वह भोग के दलदल में फँस ही नहीं सकता । यह कथा अत्यन्त प्रेरणादायी है।
रयनेमि एवं राजीमती उत्तराध्ययन सूत्र के बाईसवें अध्ययन में श्रमण रथनेमि और राजीमती का वर्णन है । रथने मि भगवान् अरिष्टनेमि के लघुभ्राता थे । रथनेमि का आकर्षण राजीमती की ओर प्रारम्भ से ही रहा । जब भगवान् अरिष्टनेमि ने राजीमती को बिना विवाह किये ही छोड़ दिया तो रथनेमि उसके साथ विवाह करने के लिए लालायित हो उठे और अपनी भावना राजीमती
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