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________________ १५२ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा कुमारों का वर्णन है । सुमुखकुमार बलदेव के पुत्र थे तथा दुर्मुख, कृपदारक और दारुक - ये क्रमशः बलदेव तथा वसुदेव के पुत्र थे । जालि, मयालि, उवयाली, पुरुषसेण, वारिषेण, प्रद्युम्नकुमार, शाम्बकुमार, अनिरुद्धकुमार, सत्यनेमिकुमार, दृढ़ने मिकुमार इन दसों राजकुमारों में पूर्व के पाँच राजकुमार वसुदेव के पुत्र थे तथा प्रद्य ुम्नकुमार और शाम्बकुमार के पिता श्रीकृष्ण थे | अनिरुद्ध कुमार के पिता प्रद्य ुम्न थे । सत्यनेमि और दृढ़ने मि के पिता समुद्रविजय थे । ये सभी राजकुमार भगवान् अरिष्टनेमि के उपदेश को श्रवण कर राजवैभव का परित्याग कर साधना के महा राजमार्ग को स्वीकार करते हैं और वीर सेनानी की भाँति आगे बढ़कर अन्तिम लक्ष्य मोक्ष को प्राप्त करते हैं । इन राजकुमारों के उल्लेख भी इतर साहित्य में अनुपलब्ध हैं । ये कथाएँ जैन साहित्य की ही अपनी देन हैं । 1 थावच्चापुत्र ज्ञातासूत्र श्रुतस्कंध प्रथम अध्ययन पाँचवें में थावच्चापुत्र की दीक्षा का वर्णन है । मुनिश्री जीवराज जी ने "थावच्चापुत्र रास" नामक ग्रन्थ में उनके जीवन का एक प्रसंग दिया है । उस प्रसंग का मूल स्रोत कहाँ है ? यह अन्वेषणीय है । थावच्चापुत्र का यह नाम उनकी माता के नाम पर पड़ा है । उनका असली नाम क्या था ? यह कहीं भी निर्दिष्ट नहीं है । वह सार्थवाह का पुत्र था । वह बाल्यकाल से ही चिन्तनशील था । वह जो भी देखता, सुनता उसके सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन करता । जब तक सही तथ्य का परिज्ञान नहीं हो जाता तब तक उसे चैन नहीं पड़ता । एक समय प्रातःकाल का सुनहरा प्रभात दिल को लुभा रहा था । मंगल गीतों की मधुर ध्वनि पड़ौसी के घर से आ रही थी । वह एकाग्र होकर गीतों को सुनने लगा । उसे गीतों की स्वर लहरियाँ अत्यन्त प्रिय लगीं । उसने माँ से जिज्ञासा की - माँ ! इतने सुन्दर और मधुर गीत पड़ोस में क्यों गाये जा रहे हैं । माँ ने बताया - वत्स ! पड़ोसी के यहाँ पुत्र पैद हुआ है ? उसकी प्रसन्नता में ये गीत गाये जा रहे हैं। माँ ! क्या मेरे जन्म के समय भी इसी प्रकार गीत गाये गये थे ? माँ ने अपने लाड़ले को चूमते हुए कहा - वत्स ! केवल गीत हैं नहीं गाये गये, बाजे भी बजाये गये, और बहुत बड़ा उत्सव किया गया माँ ! ये गोत मुझे बहुत अच्छे लगते हैं । तू भी ऊपर की छत पर चल औ गीतों का आनन्द ले । माँ ने कहा- मुझे समय नहीं है, तू ही जाकर सु I Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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