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श्रमण कथाएँ १५१ उसके जीवन का नक्शा बदल गया । वह आया था उपदेश सुनने के लिए, किन्तु श्रमण बनने के लिए तत्पर हो गया। अग्नि की नन्ही-सी चिनगारी घास-फूस को छु जाय तो वह आग प्रज्वलित हो जाती है जिसे हवा का झौंका उसे बुझा नहीं पाता किन्तु और बढ़ा देता है। वही स्थिति गजसुकुमाल के वैराग्य की थी । वैराग्य की ज्वाला को बुझाने के लिए माता-पिता के हजार-हजार आँसू बहे, जिससे पुत्र का वैराग्य उन आँसुओं में वह जाय, पर वह महाशक्ति बिचलित नहीं हुई। श्रीकृष्ण ने एक दिन का राज्य प्रदान किया। सोचा, सिंहासन का प्रलोभन इसके वैराग्य को धुंधला बना देगा पर वह महादावानल था जिसे सुख और साधनों के ऐश्वर्य तथा जयजयघोष के झंझावात बुझा नहीं सके । वह ज्वाला तो निरन्तर जलती ही रही। वह महान् साधक अनुमति प्राप्त कर दीक्षित हो गया। उन नवदीक्षित मुनि को आत्मकल्याण के लिए भिक्ष की बारहवीं प्रतिमा बताई गई । वह अभिनव साधक निर्जन श्मशान भूमि में मन को एकाग्र कर ध्यानस्थ हो गया।
मुनि के सिर पर गीली मिट्टी की पाल बाँधकर जाज्वल्यमान अंगारे रख दिये गये। माँस जल रहा था, रक्त उबल रहा था, सारे शरीर में भयंकर वेदना हो रही थी तथापि वह शान्त भाव से खड़ा था। जलते हुए आग के शोलों के नीचे भी वह हँस रहा था। मस्तक पर आग जल रही थी तथा अन्तर्मन में चिन्तन-मनन चल रहा था। शरीर लपटों से जल रहा था पर वह क्षमा एवं सहिष्णुता का देवता उस समय भी मुस्करा रहा था। यह अलंकार की भाषा नहीं, जीवन का वास्तविक तथ्य है। जिसने ध्यानसाधना को सिद्ध कर लिया, वह साधक देह में रह करके भी देहातीत स्थिति में पहुँच जाता है और ऐसे अलबेले साधक ध्यानाग्नि से कर्मों की ध्वस्त कर देते हैं । गजसुकुमाल जैसे वरिष्ठ साधक बौद्ध और वैदिक परम्परा में ढूंढ़ने पर भी मिल नहीं सकते। बड़ा अद्भुत और अनूठा कृतित्व है उसका ! श्रीकृष्ण के लघुभ्राता होने पर भी वैदिक परम्परा के ग्रन्थों में उनका उल्लेख नहीं है। गजसूकूमाल की कथा इतनी अत्यधिक लोकप्रिय हुई कि अन्तकृद्दशांग के अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश तथा राजस्थानी एवं गुजराती कथा साहित्य में विविध लेखकों ने इस पर अनेक मौलिक रचनाएँ लिखी हैं । सुमुख आदि कुमार
अन्तकृद्दशांग सूत्र के वर्ग तीसरे अध्ययन नौ से तेरह में सुमुखादि
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