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जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा
"वलि कार्तिक शेठे, पड़िमा वही सूर वीर । जीमी मोराँ ऊपर, तापस बलती खीर ||३३||
पछी चारित्र लीधूं, मित्र एक सहस आठ धीर । मरी हुओ शक्रेन्द्र, चवि लेसे भव तीर ||३४|| वैदिक परम्परा के अनुसार शतक्रतु का अर्थ है - सो यज्ञ करने वाला । कहा जाता है कि इन्द्र पूर्वभव में कार्तिक श्रेष्ठी था । उसकी बीत - राग धर्म पर अनन्य आस्था थी । उसने सौ बार श्रावक की पाँचवीं प्रतिमा तक की आराधना की। नगर में एक बार गैरिक नामक उग्र तपस्वी आया । उसके कठोर तप से सभी प्रभावित हुए । जन-समूह दर्शनार्थ उमड़ पड़ा। विराट जनसमूह को देखकर तपस्वी के मन में अहंकाररूपी नाग फन फैलाकर खड़ा हो गया । उसने लोगों से पूछा- क्या सभी लोग मेरे दर्शनार्थ आ चुके हैं ?
एक भक्त ने निवेदन किया कि कार्तिक श्रेष्ठी को छोड़कर अन्य सभी लोग आ गये हैं । तपस्वी ने क्रोध और अहंकार के वश होकर यह अभिग्रह किया - मैं कार्तिक श्रेष्ठी की पीठ पर थाली रखकर ही पारणा करूँगा अन्यथा जीवन भर कुछ भी ग्रहण नहीं करूंगा । राजा ने जब तपस्वी को पारणा करने के लिए प्रार्थना की तो तपस्वी ने अभिग्रह की बात दोहराई। राजा ने श्रेष्ठी को बुलाया तथा गरमा-गरम खीर तैयार की गई । राजा के आदेश से सेठ ने सिर झुकाया और तपस्वी ने क्रूरतापूर्वक सेठ की पीठ पर खीर से भरी थाली रखी । श्रेष्ठी की चमड़ी जलने लगी । तपस्वी ने नाक पर अँगुली रखकर कहा- तू मुझे वन्दन करने नहीं आया, उसका फल चख ! मैंने तेरा नाक काट ही दिया । सेठ मन ही मन सोचने लगा- यदि मैं पहले साधु बन जाता तो आज जो यह दयनीय दश । हुई है, वह नहीं होती । वह समभावपूर्वक कष्ट सहन करता रहा । एक हजार आठ पुरुषों के साथ श्र ेष्ठी ने मुनिसुव्रत स्वामी के पास दीक्षा ग्रहण की और श ेन्द्र बना । तापस गैरिक भी अपना आयुष्य पूर्ण कर श ेन्द्र का ऐरावत हाथी बना । इन्द्र को अपने ऊपर बैठा देखकर ऐरावत हाथी घब राया । इन्द्र ने भी अवधिज्ञान से अपना पूर्वभव देखा और ऐरावत का भी । उसे डाँटा, फटकारा । ऐरावत शान्त हो गया । प्रस्तुत ग्रन्थ मे कार्तिक श्रेष्ठी की दीक्षा आदि का विस्तार से निरूपण हुआ है ।
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