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कार्तिक श्रेष्ठी :
भगवती सूत्र शतक अठारह उद्देशक दूसरे में कार्तिक श्रेष्ठी की कथा भी आई है, जो भ० मुनिसुव्रत के तीर्थ में हुए थे। ये ही कार्तिक श्रेष्ठी प्रथम देवलोक के इन्द्र बने । भारतीय साहित्य में इन्द्र के हजार नाम प्रसिद्ध हैं । जैन, बौद्ध और वैदिक इन तीनों ही परम्पराओं में इन्द्र के सम्बन्ध में चर्चा है | हम यहाँ इन्द्र के अनेक नामों में से कुछ शब्दों का उल्लेख कर रहे हैं, जो प्रस्तुत ग्रन्थ में व्यवहृत हुए हैं । "शक" नामक सिंहासन पर बैठने से तथा सामर्थ्यवान होने से वह 'शक' कहलाया । देवताओं के मध्य परम ऐश्वर्ययुक्त होने से वह 'इन्द्र' के नाम से विश्रुत हुआ । इन्द्र नाम सबसे अधिक प्रचलित है। ऋग्वेद में प्रायः दो सौ पचास सूक्तों में इन्द्र का वर्णन है और पचास सूक्त ऐसे भी हैं, जिनमें दूसरे सूक्तों के साथ इन्द्र का वर्णन है । इस तरह ऋग्वेद का लगभग चतुर्थांश इन्द्र की स्तुतियों से भरा पड़ा है। ऋग्वेद में इन्द्र को अग्नि का जुड़वाँ भाई बताया है | पौराणिक युग में मानव तप से इन्द्र पद प्राप्त करने के लिए लालायित रहता था । इन्द्र अपने सिंहासन की रक्षा के लिए अप्सराओं को प्रेषित करता है जो तपस्वियों को मोहित कर पथ-भ्रष्ट करती हैं । पौराणिक इन्द्र शक्तिमान्, समृद्ध और विलासी है ।
जैन दृष्टि से अन्य देवों में नहीं पाई जाने वाली असाधारण अणिमा, महिमा आदि ऋद्धियों के धारक ऐसे देवाधिपति को इन्द्र के नाम से अभिहित किया है । 2 देवताओं का राजा होने से वह देवराज भी कहलाता है । हाथ में वज्र नामक शस्त्र को धारण करने से 'वज्रपाणि' है । शत्रुओं के नगरों को नष्ट करने के कारण वह 'पुरन्दर' है । कार्तिक श्रेष्ठी के भव में सौ बार श्रावक की पाँचवीं प्रतिमा अर्थात् अभिग्रह विशेष को धारण करने के कारण वह 'शतक्रतु' कहलाता है । यद्यपि भगवती सूत्र में जो कार्तिक श्रेष्ठी की कथा है, उसमें कार्तिक श्रेष्ठी के द्वारा सौ बार प्रतिमा धारण की गई, ऐसा उल्लेख नहीं हुआ है । किन्तु आचार्य श्री जयमलजी महाराज ने बड़ी साधु वन्दना में लिखा है
१. ऋग्वेद ६/५६ / २ ।
२ (क) अन्य देवासाधारणाणिमादि योगादिन्दन्तीति इन्द्रा:- सर्वार्थसिद्धि ४/४ । ( ख ) तत्वार्थश्लोकवार्तिक ४/४ ।
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