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________________ १३६ जैन कथा साहित्य की विकास यात्रा भरत महाराज एक बार स्नानादि से निवृत्त होकर शीशमहल में पहुँचे । शीशमहल में सिंहासन पर आसीन हुए। चारों ओर अपना रूप देखकर अन्तरूप की ओर आकृष्ट हुए। शुद्ध परिणामों की धारा प्रवाहित हुई । जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति के अनुसार भावों की तीव्रता से भरत महाराज को केवलज्ञान हो गया। आवश्यकनियुक्ति के अनुसार शीशमहल में भरत अपनी दिव्य छटा को देखकर विस्मित थे। उनकी दृष्टि अँगुलियों पर गिरी, एक अंगुली शोभाविहीन थी, क्योंकि उसमें पहनी हुई अँगूठी गिर गई थी। उन्होंने दूसरी अंगुलियों की अंगूठियाँ भी धीरे-धीरे निकालना प्रारम्भ किया और देखने लगे कि ये अँगुलियां कैसी लगती हैं ? इस तरह उन्होंने सारे आभूषण उतार दिये । वे सोचने लगे-शरीर का सौन्दर्य मेरा नहीं है, जो शरीर कुछ क्षणों पहले चमक रहा था, वह आभूषणों के अभाव में कान्तिहीन प्रतीत हो रहा है । भौतिक अलंकारों से लदी हई सुन्दरता कृत्रिम और भ्रामक है । उसमें फंसकर मानव अपने शुद्ध स्वरूप को विस्मृत हो जाता है । इस प्रकार चिन्तन करते हुए उन्हें केवलज्ञान हुआ। आवश्यकनियुक्ति और जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में यही अन्तर है कि जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति में पहले केवलज्ञान होता है और उसके बाद भरत अपने वस्त्रालंकार उतारते हैं; जबकि आवश्यकनियुक्ति में वस्त्रालंकार उतारने के बाद केवलज्ञान होने का उल्लेख है। आवश्यकनियुक्ति आदि में सम्राट भरत के जीवन से सम्बन्धित अन्य अनेक प्रसंग हैं। विस्तारभय से हम उन्हें यहाँ नहीं दे रहे हैं। चक्रवर्ती की विजय, और अन्य जानकारी स्थानांग और समवायांग सूत्र में आई हैं। बलदेव-वासुदेव बलदेव, वासुदेव ये दोनों भाई के रूप में होते हैं । नौ बलदेव और १ जम्बूद्वीपप्रज्ञति, वक्षस्कार ३ २ आवश्यकनियुक्ति, गाथा ४३६ ३ तुलना कीजिए--अंगुत्तरनिकाय (५/११३) में बताया है कि चक्रवर्ती का चक्र लौटता नहीं है। उसके पाँच कारण बताये हैं-वह अर्थज्ञ होता है, धर्मज्ञ होता है, मर्यादाशील होता है, कालज्ञ होता है और परिषद् को जानने वाला होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003190
Book TitleJain Katha Sahitya ki Vikas Yatra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1989
Total Pages454
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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